जयपुर के साहित्य शिल्पी
साहित्य और कला की दृष्टि पांडित्य और शिल्प की दृष्टि से अन्तपुरों को रति और काव्य-रीति की दृष्टि से- उदारचेता और दानी राजाओं की दृष्टि से- कलाकारों और भक्तों की दृष्टि से जिस नगरी ने भारतवर्ष में अपना अन्यतम स्थान बनाया उसे सवाई जयसिंह, जयपुर नरेश न बसाया था। ज्योतिष और, कला-कोविदो, पंडितों, गुणीजनों से इस प्रकार शोभा अभिमण्डित किया था कि जयपुर ‘ द्वितीय काशी’ के नाम से विख्यात हो गया। एक समय था जब पांडित्य और शास्त्रार्थ, प्रस्तुति और पुष्टि, खण्डन और मण्डन, काव्य और शिल्प जैसे विषयों पर राजा से लेकर साधारण प्रजाजनों तक गम्भीर चिन्तन को आयाम दिया जाता था।
मुग़ल साम्राज जब अपने वैभव के चरम शिखर पर था और जबसे उसने पतन की और प्रयाण आरंभ किया दानों ही स्थितियों में जयपुर आमेर के कच्छवाह नरेशों ने कवियों, कलाकारों, गुणीजनों को अपने यहां राज्याश्रय दिया । उनके नाज नखरे उठाये और लेखनी के कारीगरों से अमर हो उठे। जिनकी पार्थिव देहयष्टि चित्रों से रक्षित रही या कवलित हुई पर ‘ बस कहिबे की बातें रह जायेगी-1’ और ये बातें आज भी उनके आश्रित कवियों के कविकर्म में सुरक्षित हैं। वैसे तो सम्पूर्ण राजस्थान के राजा ही परम उदार और कवियों गुणियों का आदर करने वाले हुए हैं, परन्तु जयपुर को राजवंश इस दृष्टि से बहुत अग्रणी रहा हैं।महाराजा पृथ्वीराज, महाराजा साँगा के समकालीन और नाथ मतानुयायी थे। इनके शासनकाल में श्रीकृष्ण दास ’पयहारी’ वैष्णव सम्प्रदाय के प्रसिद्ध कवि तथा संत हुए हैं। इनका उल्लेख ‘अष्टछाप’ और उनके शिष्य ‘भक्तमाल’ के रचयिता नाभादास प्रसिद्ध संत कवियों में गिने जाते हैं।
महाराजा मानसिंह आमेर राज्य तथा राजवंश को अखिल भारतीय महत्व प्रदान करने वाल, कुशवाह कुल भास्कर, वीर शिरोमणि, महाराजा मान साहित्य प्रेमी, रसज्ञ तथा गुणग्राहक थे। उनकी वीरता के लिये ये पक्तिंयां प्रसिद्ध हैं ।जननी जणे तो ऐसा जण, जे डो़ मार मरद्ध, समंदर खाडो़ पाखलियो- काबुल घाती हद्द।और कविगण पर प्रसन्न होने वाले उस दानी महीप ने कवि हरनाथ की इस रचना पर एक लाख रुपये का नकद पुरस्कार दिया था ।
बलि बोई कीरति-लता, कर्ण करी द्वै पात। सींची मान महीप ने, जब देखी कुम्हिलात ।।उनके बारे में यह कथ्य भी बहुत प्रसिद्ध हैं कि किसी कवि को एक बनिये ने एक हजार रुपये के लिये बहुत तंग कर लिया था आखिर कवि ने अपनी काव्य-हुण्डी महाराज मान को ही लिख भेजी। उसकी अंतिम पक्तिंयां इस प्रकार थी-हुण्डी एक तुम पर कीन्हीं हैं हजार की सो, कविन को राखे मान साह जोग देनी हैं।। पहुँचे परिमान भानुवंश के सुजान मान, रोक गिन देनी जस लेखे लिख लेनी हैं।। उस काव्य-प्रेमी राजा ने ‘हुण्डी’ के रुपये तुरन्त बनिये को भिजवा दिये और कवि को समुचित आदर के साथ लिख भेजा-
इतै हम महाराज हैं उतै आप कविराज,
हुण्डी लिखि हजार की, नैकु न आई लाज।।वे नरेश अनेक भाषाओं, यथा संस्कृत, प्राकृत, फारसी, तुर्की ब्रज भाषा, गुजराती, पश्तो, बंगाली आदि के जानकार थे। इनका कोई ग्रंथ नहीं मिलता, स्फुट छन्द ही मिलते हैं। इनके शासन काल में ‘मान चरित्र’ नामक काव्य-ग्रंथ लिखा गया। दीवान देवी दास ने राजनीति पर ग्रंथ लिखा- दादू पंथ के प्रवर्तक कवि दादू दयाल और उनके शिष्य एवं प्रसिद्ध कवि सुदंरदासजी ने इनके राज्य में ही कालयापन किया।
महा पराक्रमी, बहुभाषी विज्ञ तथा गुण ग्राही नरेश मिर्जाराजा जयसिंह की गणना मुगलकाल के दक्ष राजनीतिज्ञ में की जाती हैं। महाकवि बिहारी उन्हीं के दरबारी कवि थे। जिनकी सुप्रसिद्ध रचना’ बिहारी सतसई’ से कौन साहित्य रसिक अपरिचित होगा, अर्थात जिस सरस कृति पर 54 टीकाऍं लिखि गई हों उससे कौन काव्य-प्रेमी अपरिचित रह सकता हैं। सतसई के रचयिता ने ही महाराजा जयसिंह को महलों की ‘भोग’तंद्रा’ से मुक्त किया था। उन्होने साहित्य के इस नत्नगर्भा कवि को एक एक दोहे पर स्वर्ण’मुद्रा प्रदान की थी। इन्हीं के आश्रित दूसरे महान कवि कुलपति मिश्र थे जो महाराजा के दक्षिण-युद्धों में उनके साथ गये थे और उन्होने शिवाजी तथा महाराजा की घटनाओं को उल्लेख ‘शिवा की बार’ नामक काव्य’ ग्रंथ में किया था।
जयपुर के निर्माता नरेश महाराजा सवाई जयसिंह संस्कृत, फारसी तथा हिन्दी के उद्भट विद्वान थे । भारतीय ज्योतिषशास्त्र का उद्वार उन्होंने देश की वैसी ही सेवा की जैसी पोप ग्रेग्ररी द्वारा कलेण्डर सुधार से यूरोप की हुई । भारत के प्रमुख नगरों में वेघशालाओं की स्थापना इन्हीं की महान प्रतिभा का फल हैं। इन्होंने ‘जीज मुहम्मदशाही‘ नामक नाम से फारसी तथा हिन्दी में उत्क्रष्ट ज्यौतिषग्रन्थ की रचना की। इनके आश्रित कवियों में श्रीकृष्ण भट्ट ‘ कलानिधि’ का नाम उल्लेखनीय हैं, जिन्हें ये बूँदी नरेश से याचना करके लाये थे। इन्होंने ‘ईश्वर विलास महाकाव्यम् वृत मुक्तावली’ अलंकार कलानिधि’ साभरियुद्ध’ विदग्ध माधव माधुरी’ ‘जाजउ रासौ आदि काव्य शास्त्रीय ग्रंथों का प्रणयन किया।
महाराज माधवसिंह(प्रथम) के समय ब्रजपाल तथा रामपाल नामक दो प्रसिद्ध कवि जयपुर आकर रहे। सुकवि द्वारिकानाथ तैलंग भट्ट ने उनके आश्रय में अनेक ग्रंथ लिखे। शिवसहायदास तथ जगदीश भट्ट ने भी कई ग्रंथों की रचना की। इनके समय में ब्रजपाल भट्ट द्वारा महाभारत का हिन्दी अनुवाद किया गया।
जयपुर राजवंश के महाराजा सवाई प्रताप सिंह अपनी प्रखर काव्य प्रतिभा के कारण ब्रजभाषा के उत्कृष्ट कवियों में गिने जाते थे। इनकी कविता अत्यन्त सरस ह्रदयग्राही तथा कलापूर्ण थी। पुरोहित हरिनारायणजी के ब्रजनिधि ग्रंथावली के नाम से महाराजा के समस्त प्राप्य ग्रंथों का योग्यतापूर्वक सम्पादन करवाकर, नागरी प्रचारिणी सभा, बनारस द्वारा प्रकाशन करवाया। महाराजा की जयपुरी भाषा में रची गई कविताऍं अत्यन्त मनोहर हैं – भगवान गोविन्ददेवजी को दिया गया एक उलाहना दृष्टव्य हैं-
ग्वालीड़ा थे कांई जाणो पीड़ पराई
हाथ लकुटिया काँधें कमलिया बन-बन धेनु चराई।।
प्रतापसिंह कृत रचानाओं में प्रीतिलता, स्नेह संग्राम, फागरंग, प्रेम प्रकाश, मुरली बिहार, सुहागरैनी, रंगचौपड़, प्रीतिपचीसी, प्रगम पंथ, बृज शृंगार बृजनिधि मुक्तावली, बृजनिधि-पद संग्रह आदि मुख्य हैं। ‘ब्रजनिधि’ महाराजा प्रतापसिंह केवल कवि ही नहीं थे, वे ज्ञान के पुजारी और कवियों का आदर करने वाले थे। इनके प्रोत्साहन से वेधक का ‘प्रताप- सागर’ ज्योतिष का ‘ प्रताप मार्तण्ड’ धर्मशास्त्र को प्रतापार्क’ नामक कई ग्रंथों का प्रणयन हुआ। संगीत सम्बन्धी रचानाओं में –‘ राधा गोविन्द संगीत सार, राम रत्नाकर, स्वर-सागर, ब्रज प्रकाश की रचना इन्हीं के समय में हुई । फारसी के ‘दीवाने हाफ़िज़’ तथा ‘ आईने अकबरी‘ का अनुवाद भी इनकी आज्ञा से हुआ। गणपति जी ‘भारत’/गुसांई रसपुजजी/चतुर शिरोमणि/रस राज़ी आदि कवियों ने इनके राज्य की शोभा बढ़ाई। महाराजा ने जिन हज़ारों का संग्रह करवाया इनमें प्रताप और हजारा’/प्रताप सिंगार हजारा मुख्य हैं।
महाराजा सवाई जगत सिंह के राज्याश्रय में हिन्दी के श्रेष्ठ महाकवि ‘पद्माकर’ भट्ट हुए- जिन्हें राज्य से सब प्रकार सम्मान एवं आदर प्राप्त हुआ। इनके आश्रय में ही मंडन भट्ट ने अपनी रचनात्मक प्रतिभा का परिचय अनेक काव्य ग्रन्थ लिखकर दिया।
महाराजा समाई राम सिंह अद्भुत प्रतिभा सम्पन्न, विलक्षण, बुद्धि सम्पन्न एवं प्रजावत्सल नरेश थे। इनके समय में दुलीचन्द कान्य कुब्ज ने महाभारत का हिन्दी अनुवाद किया। लोकनाथ चोबे इनके समय में प्रसिद्ध कवि थे।
महाराजा सवाई माधवसिंह (द्वितीय) के समय कवियों और लेखकों में श्री भूर सिंह शेखावत, पुरोहित सर गोपीनाथ, पुरोहित राम प्रताप, पंडित चन्द्रधरशर्मा गुलेरी, राम नाथ रत्नू, जैन वैद्य – समर्थ दान आदि मुख्य हैं।
जयपुर राजवंश के अंतिम एवं ख्यातिनामा नरेश, जिनकी प्रजातन्त्र में दृढ़ आस्था और भक्ति थी, महाराजा मानसिंह के समय में अनेक कवि और लेखक राज्य की शोभा अभिवृद्धि करते रहे, जिसमें अधिकांश काल के क्रूर हाथों से हमारे बीच न रहे । पुरोहित हरिनारायणजी, रावबहादुर नरेन्द्रसिंह ठाकुर कल्याण सिंह शेखावत, महामहोपाध्याय श्री गिरधर शर्मा चतुर्वेदी, साहित्याचार्य, मथुरानाथ भट्ट, पुरोहित प्रतापनाराणण कविरत्न, पंडित मदनमोहन शर्मा एवं आशुकवि कवि भूषण हरि शास्त्री आदि प्रमुख हैं।
जयपुर राजवंश प्राचीनकाल से ही कलाकारों और कवियों का आश्रयदाता रहा हैं। विभिन्न महाराजाओं के प्रयत्नों से 35 कवीश्वरों और अनेक चारण कवियों के परिवारों ने जयपुर को अपना स्थायी आवास बनाया था।
राज्य के राजवंश और आश्रय के पलने वाले कवियों और उनकी रचानाओं की संख्या हज़ारों में हैं। किन्तु विस्तार भय से बचने और संक्षेप में प्रवृति गत मूल्यांकन के रूप में कुछ उदाहरण यहां उदघृत किये जा रहे हैं।
स्व-वंश वर्णन
कुलपति कविपति के तनय गोविन्द राम सुजान
जिनके सुत अति बुद्वियुत, सदासुखहि, मतिमान।। (-कुलतिमिश्र)
आश्रयदाता प्रशस्ति
‘बैरी दूःख दै के, जय जूथ लेके।
आयो राम राजा के मुसाहिब बसंत हैं।। (- नंदलाल)
garv hota hai ji apne raajasthaan par aur gulaabi nagri ke sahityashilpiyon ke amit yogdaan par...........
जवाब देंहटाएंbadhaai !
बहुत मेहनत से लिखा है आपने यह वृत्तांत. बधाई.
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