किशोर पारीक "किशोर"

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किशोर पारीक 'किशोर' गुलाबी नगर, जयपुर के जाने माने कलमकार हैं ! किशोर पारीक 'किशोर' की काव्य चौपाल में आपका स्वागत है।



गुरुवार, जुलाई 16, 2009

जयपुर के साहित्‍य शिल्पि

साहित्‍य और कला की दृष्टि पांडित्‍य और शिल्‍प की दृष्टि से अन्‍तपुरों को रति और काव्‍य-रीति की दृष्टि से- उदारचेता और दानी राजाओं की दृष्टि से- कलाकारों और भक्‍तों की दृष्टि से जिस नगरी ने भारतवर्ष में अपना अन्‍यतम स्‍थान बनाया उसे सवाई जयसिंह, जयपुर नरेश न बसाया था। ज्योतिष और, कला-कोविदो, पंडितों, गुणीजनों से इस प्रकार शोभा अभिमण्डित किया था कि जयपुर ‘ द्वितीय काशी’ के नाम से विख्‍यात हो गया। एक समय था जब पांडित्‍य और शास्‍त्रार्थ, प्रस्‍तुति और पुष्टि, खण्‍डन और मण्‍डन, काव्‍य और शिल्‍प जैसे विषयों पर राजा से लेकर साधारण प्रजाजनों तक गम्‍भीर चिन्‍तन को आयाम दिया जाता था।
मुग़ल साम्राज जब अपने वैभव के चरम शिखर पर था और जबसे उसने पतन की और प्रयाण आरंभ किया दानों ही स्थितियों में जयपुर आमेर के कच्‍छवाह नरेशों ने कवियों, कलाकारों, गुणीजनों को अपने यहां राज्‍याश्रय दिया । उनके नाज नखरे उठाये और लेखनी के कारीगरों से अमर हो उठे। जिनकी पार्थिव देहयष्टि चित्रों से रक्षित रही या कवलित हुई पर ‘ बस कहिबे की बातें रह जायेगी-1’ और ये बातें आज भी उनके आश्रित कवियों के कविकर्म में सुरक्षित हैं।
वैसे तो सम्‍पूर्ण राजस्‍थान के राजा ही परम उदार और कवियों गुणियों का आदर करने वाले हुए हैं, परन्‍तु जयपुर को राजवंश इस दृष्टि से बहुत अग्रणी रहा हैं।
महाराजा पृथ्‍वीराज, महाराजा साँगा के समकालीन और नाथ मतानुयायी थे। इनके शासनकाल में श्रीकृष्ण दास ’पयहारी’ वैष्‍णव सम्‍प्रदाय के प्रसिद्ध कवि तथा संत हुए हैं। इनका उल्‍लेख ‘अष्‍टछाप’ और उनके शिष्‍य ‘भक्‍तमाल’ के रचयिता नाभादास प्रसिद्ध संत कवियों में गिने जाते हैं।
महाराजा मानसिंह आमेर राज्‍य तथा राजवंश को अखिल भारतीय महत्‍व प्रदान करने वाल, कुशवाह कुल भास्‍कर, वीर शिरोमणि, महाराजा मान साहित्‍य प्रेमी, रसज्ञ तथा गुणग्राहक थे। उनकी वीरता के लिये ये पक्तिंयां प्रसिद्ध हैं ।
जननी जणे तो ऐसा जण, जे डो़ मार मरद्ध, समंदर खाडो़ पाखलियो- काबुल घाती हद्द।
और कविगण पर प्रसन्‍न होने वाले उस दानी म‍हीप ने कवि हरनाथ की इस रचना पर एक लाख रुपये का नकद पुरस्‍कार दिया था ।
बलि बोई कीरति-लता, कर्ण करी द्वै पात। सींची मान महीप ने, जब देखी कुम्हिलात ।।
उनके बारे में यह कथ्‍य भी बहुत प्रसिद्ध हैं कि किसी कवि को एक बनिये ने एक हजार रुपये के लिये बहुत तंग कर लिया था आखिर कवि ने अपनी काव्‍य-हुण्‍डी महाराज मान को ही लिख भेजी। उसकी अंतिम पक्तिंयां इस प्रकार थी-
हुण्‍डी एक तुम पर कीन्‍हीं हैं हजार की सो, कविन को राखे मान साह जोग देनी हैं।। पहुँचे परिमान भानुवंश के सुजान मान, रोक गिन देनी जस लेखे लिख लेनी हैं।। उस काव्‍य-प्रेमी राजा ने ‘हुण्‍डी’ के रुपये तुरन्‍त बनिये को भिजवा दिये और कवि को समुचित आदर के साथ लिख भेजा-
इतै हम महाराज हैं उतै आप कविराज, हुण्‍डी लिखि हजार की, नैकु न आई लाज।।
वे नरेश अनेक भाषाओं, यथा संस्‍कृत, प्राकृत, फारसी

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