किशोर पारीक "किशोर"

किशोर पारीक "किशोर"

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किशोर पारीक 'किशोर' गुलाबी नगर, जयपुर के जाने माने कलमकार हैं ! किशोर पारीक 'किशोर' की काव्य चौपाल में आपका स्वागत है।



बुधवार, दिसंबर 14, 2011

बात पुरानी शब्‍द नये, अर्थ न जाने कहॉं गये

बात पुरानी शब्‍द नये, अर्थ न जाने कहॉं गये


सच्‍चे मन से गर चाहा,

वो बक्‍शेगा बि‍ना कहे

मंजि‍ल पे नजरें रखना,

रस्‍ते होंगे नये नये

जायेगें कुछ जाने को,

बाकी के सब चले गये

भूल भुल्‍लइया मृग तृश्‍ना

कि‍शोर तुम भी छले गये

कि‍शोर पारीक 'कि‍शोर'

धन गोरा या काला हो, स्‍वीस बैंक में जाने दो




सबको यहॉं कमाने दो, खाता है जो खाने दो

बेमतलब ना ताने दो, छोडो मि‍यॉं जाने दो

महफि‍ल में तुम चुप बैठो, जैसा गाये गाने दो

भाड में जाये जि‍ज्ञासा, चि‍ल्‍लाये चि‍ल्‍लाने दो

संयम की मत बात करो, उनको रास रचाने दो

धन गोरा या काला हो, स्‍वीस बैंक में जाने दो



कि‍शोर पारीक कि‍शोर
मंहगाई से खाटे हुई खडी है,


सदनों में जि‍न्‍दा लाशे मरी पडी है

लगा तू बहती गंगा में डूबकी

क्‍यों नारे लगाता, यंहा गडबडी है

रोता क्‍यों भूखों के लि‍ये तू प्‍यारे

गोदामों में गेंहू की बोरी सडी है

नगमें सुनाये जा तू प्‍यार के

माता भारती उधर रो पडी है

कि‍शोर पारीक 'कि‍शोर'

नव वर्ष 2012 शुभकामना

नये वर्ष पर मॉं शारदा से अरदास


देना मॉं अनुपम उपहार, देना मॉं अनुपम उपहार,

नए साल में मि‍ल जाये मॉं , खुशि‍यॉं अपरम्‍पार ।


मि‍टटी, अंबर,आग, हवा, जल, में मॉं नहीं जहर हो,

सूखा, वर्षा, बाढ, सुनामी का मां नहीं कहर हो,

रि‍तुऐं, नवग्रह, सात स्‍वरों की हम पर खूब महर हो,

धरती ओढे चुनरधानी, ढाणी, गांव, शहर हो,

दशो दि‍शाओं का कर देना, अदभुद सा श्रंगार ।

देना मॉं अनुपम उपहार, देना मॉं अनुपम उपहार,

नए साल में मि‍ल जाये मॉं , खुशि‍यॉं अपरम्‍पार ।


शब्‍दों के साधक को देना, भाव भरा इक बस्‍ता

मुफलि‍स से मॉं दूर करो तुम, कष्‍टों भरी वि‍वशता

ति‍तली गुल भवरों को देखें, हरदम हंसता हंसता

दहशतगर्दों के हाथों में भी दे मॉं गुलदस्‍ता

कल कल करती मां गंगा फि‍र, मुस्‍काये हर बार

देना मॉं अनुपम उपहार, देना मॉं अनुपम उपहार,

नए साल में मि‍ल जाये मॉं , खुशि‍यॉं अपरम्‍पार ।


मंदि‍र के टंकारे से, नि‍कले स्‍वर यहॉं अजान के

मस्‍जि‍द की मि‍नारें गायें नगमें गीता ज्ञान के

मि‍लकर हम त्‍योंहर मनाऐं, होली और रमजान के

दुनि‍यां को हम चि‍त्र दि‍खाऐं ऐसे हि‍न्‍दुस्‍तान के

अमन चैन भाई चारे की होती रहे फुहार

देना मॉं अनुपम उपहार, देना मॉं अनुपम उपहार,

नए साल में मि‍ल जाये मॉं , खुशि‍यॉं अपरम्‍पार ।



कि‍शोर पारीक 'कि‍शोर'

रविवार, अगस्त 28, 2011

थांका नेना की कटार, म्हाके हिवड़े उतरी आर

थांका नेना की कटार, म्हाके हिवड़े उतरी आर
ढग्यो प्रीत रो मीठो ज्वार, दुनियां खेवे छे बीमार  

होठ पांखडी सी गुलाब की, रस बर्सायाँ जावे
मुळको छो बिज़ली सी चिमके,सगळा गश खाजावे
होगा म्हे कितना लाचार, करल्यो म्हासूं आंख्या चार
थांका नेना की कटार, म्हाके हिवड़े उतरी आर
ढग्यो प्रीत रो मीठो ज्वार, दुनियां खेवे छे बीमार  


काची हल्दी सो रंग थांको, कंचन भी हलकों छे
बीच बादल्याँ साँझ सावने, सूरज को पलको छे
लागो रूप का थे कोठ्यार, म्हाने सजनी बीण सिंणगार
थांका नेना की कटार, म्हाके हिवड़े उतरी आर
ढग्यो प्रीत रो मीठो ज्वार, दुनियां खेवे छे बीमार  


मीठी बोली मैं ऐयाँ लागे, कोयलडी गीत सुनावे
जाने कोई पथिक प्यास मैं, गंगा जल पा जावे
बिन कागज चिठ्ठी तार, म्हाने दे द्यो थे संचार  
थांका नेना की कटार, म्हाके हिवड़े उतरी आर
ढग्यो प्रीत रो मीठो ज्वार, दुनियां खेवे छे बीमार  


मैं सागर थे चंचल नंदी, मिलनो बहुत जरूरी
चोखी कोनी थांकी म्हाकी, तन मन की या दूरी
म्हाने करल्यो अंगीकार, थांको माना ला आभार
थांका नेना की कटार, म्हाके हिवड़े उतरी आर
ढग्यो प्रीत रो मीठो ज्वार, दुनियां खेवे छे बीमार  
  

बुधवार, जुलाई 13, 2011

सिर्फ कुंठाओं की अभिव्यक्ति नहीं है कविता

सिर्फ कुंठाओं की अभिव्यक्ति नहीं है कविता


काम क्रीडाओ की आसक्ति नहीं है कविता

कविता हर देश की तस्वीर हुआ करती है

निहथ्थे लोगों की शमशीर हुआ करती है
डा उर्मिलेश

शुक्रवार, जुलाई 01, 2011

सावन की मंद फुहार, बदरिया बरसो तुम

सावन की मंद फुहार, बदरिया बरसो तुम
कोयलिया कहे पुकार, बदरिया बरसो तुम

उमस हमको धमकाए
गरमी ने होश उडाए
तन से चू रहा पसीना
धाराऍं सहस बहाए
जग करता हाहाकार
बदरिया बरसो तुम

सावन की मंद फुहार, बदरिया बरसो तुम
कोयलिया कहे पुकार, बदरिया बरसो तुम

बदला सब चलन कुदरती
ऋतुऍं अब है छल करती
हरियाली के बिन ऐसी
लग रही हमारी धरती
बैरागिन बिन श्रंगार
बदरिया बरसो तुम

सावन की मंद फुहार, बदरिया बरसो तुम
कोयलिया कहे पुकार, बदरिया बरसो तुम

नन्‍हें मुनहे कुम्‍भलाऍं
तुम आओ तो मुस्‍काऍं
कागज से निर्मित नैया
तुम बरसो तो तैराऍं
उपजे उल्‍लास अपार
बदरिया बरसो तुम

सावन की मंद फुहार, बदरिया बरसो तुम
कोयलिया कहे पुकार, बदरिया बरसो तुम


है चारों और उदासी
नदियॉं ले रही उबासी
तालाब तक रहे अबंर
झीलें प्‍यासी की प्‍यासी
झड लगे मूसलधार
बदरिया बरसो तुम

सावन की मंद फुहार, बदरिया बरसो तुम
कोयलिया कहे पुकार, बदरिया बरसो तुम

kishore pareek "kishore"

शुक्रवार, जून 24, 2011

ईश्‍वर तुल्‍य पिता को शत शत नगन है

मैं अंश हूं तुम्‍हारी स्‍नेहमयी अभिलाशा का

मैं वंश हूं तुम्‍हारे काव्‍यालय की आशा का
मैं अभ्रिव्‍यक्ति हूं तुम्‍हारी अनकही भाषा की
मैं अनुभूति हूं तुम्‍हारी हर परिभाषा की
मेरे चित्‍त पटल पर सब,सतरंगी चित्र तुम्‍हारे है
बाबू जी तुमरे बिन तो, ये कोरे कागज सारे हैं

मेरी थकन को शक्ति का सागर दिया,
तोतली जुबान को शब्दों का आगर दिया
मेरी गुस्ताखियां माफ करते रहे,
मेर हर अक्षर को, पैराग्राफ करते रहे
मैं अंश हूं तुम्हारी स्नेहमयी अभिलाषा का,
मैं वंश हूं तुम्हारी काव्यालय की आशा का
मेरी मुस्‍कुराहटों के तुम्‍ही तो हेतु हो
मेरी खुशियों की हाटों के तुम्‍ही तो सेतु हो
तुम ही धरती और तुम्‍ही हो अम्‍बर
मेरे तो तुम्‍ही ईश्‍वर तुम्‍ही हो पेगम्‍बर
मेरी हर पगडंडी तुम्‍हारी अनुगामी है
हर भटकाव पर तुम्‍ही ने अंगुली थामी है
पितृ ऋण से बडा ऋण हो नहीं सकता
कितना भी चुकाये पुत्र उऋण हो नहीं सकता
आप हैं तो ये खुशबू है, फूल है, चमन है
ईश्‍वर तुल्‍य पिता को शत शत नगन है
किशोर पारीक 'किशोर'
देखो कुदरत की ये रंगशाला है,


योग मुद्रा में खडी कोई वृक्ष बाला है ।

मैंने पूछा रब से इसके सोंदर्य का राज

मुस्‍काकर बोला मैंने फुरसत में ढाला है

बरखा की प्रथम बूदों का स्‍वागत

बरखा की प्रथम बूदों का स्‍वागत


पहली बरखा का हुआ, मनभावन अहसास ।
लम्‍बे लधंन बाद ज्‍यों, होठों लगा गिलास ।।
टप टप बूंदो की सुनी, रिदम भरी पदचाप ।
तबले पर पडने लगी, ज्‍यों जाकिर की थाप।।
उस दिन वह थी साथ में, उपर से बरसात ।

हाल हमारे देख कर, छाता भी मुस्‍कात ।।
बिजली चमके साथ में, पवन मंचाये शोर ।
तन में मन में उठ रहे, यादों भरे हिलोर ।।
मेघदूत संग भेजती, सजनी यह सन्‍देश ।
सावन बीता जा रहा, बालम लोटो देश ।।
दूरंदेशी देखिये, बैइये की श्रीमान ।
बरखा पहले नीड़ का, कर डा़ला निर्माण।।

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गुरुवार, मार्च 31, 2011

गुलाल अबीर का तिलक लगाने, हर घर जायेंगे !!

गीत सुनायेंगे रंगों के, फाग सजायेंगे !
इस होली पर मस्ती में, हम सब हर्षाएँगे !!
न पानी से होली का, त्यौहार मनाएंगे !
गुलाल अबीर का तिलक लगाने, हर घर जायेंगे !!
 

सचिन का ध्यान, विश्व कप को दिलाएगा

यूवी का उफान, सहवाग का तूफ़ान
सचिन का ध्यान, विश्व कप को दिलाएगा
नाचे सारा देश, और झूमेगा परिवेश
मेच जीत कर फिर, जश्न मनाएगा
श्रीलंका फिल्डरों को, दोडायेंगे खूब ये
मुम्बई में शान से तिरंगा, फहराएंगा
कहता किशोर जोश, अपना पहाड जैसा
होली का उपहार देश, अनूठा ही पायेगा

किशोर पारीक "किशोर"

तेंदुलकर का बल्ला यारों, फिर तूफान मचायेगा !

कितने उछले थे कंगारू, लेकिन ढीला कर डाला !
अहंकारियों के सपनो को, भारत ने था धो डाला !!

महायुद्ध अब मोहाली में, डरने की तो बात नहीं !
हरा सके अपने शेरों को, चूहों की औकात नहीं !!

चोकन्ने हैं सभी खिलाड़ी, ज्यों हमले को रहता बाज़ !
पाक तुम्हारे लिए बहुत है, आपना प्यारा इक युवराज !!

अफरीदी तेरे बोलर तो, देख रहे हमको ग़मगीन !
उड़ी नींद सपनों में दिखता, ज्यों पर्वत सा खड़ा सचिन !!

तुमने समझा लगी हाथ बस, जीत सरीखी मीठी खीर !
ऐसी ताल बिगडेगा, बोलिंग में दमदार जहीर !!

जरदारी जी और गिलानी, को भेजा नोता पक्का !
सीमा पार मनमोहनजी ने, अमन शांति का लगा छकका !!

हम करके मेहमान नवाजी, कोई कसर न लायेंगे !
अब सुन लेना हम क्रिकेट में, तुमको धूल चटायेंगे !!

जैसे शावक को कोई भी, गीदड टोक नहीं सकता !
भारत को अब कप पाने से, कोई रोक नहीं सकता !!

तेंदुलकर का बल्ला यारों, फिर तूफान मचायेगा !
वर्ष अठाईस बाद देश फिर,से इतिहास रचायेगा !!

kishore parek Kishore

भारत मॉ को चाहिये, विश्व कप का ताज़ !!


कंगारू हैरान है, सदमे मे है पाक ! 
भारत की अब जम गयी, जग मे तगडी धाक !!

मोहाली तो जीत ली, अब मुम्बई की जंग !
श्रीलंका को हम वहाँ, खूब करेंगे तंग !!

चोंको छ्क्को से करो, फाइनल का आगाज़ !
भारत मॉ को चाहिये, विश्व कप का ताज़ !!

धोनी की दादी कहे, इतराती मुस्काय

यारों तुमने पाक की, तोड़ी भुजा मरोड़ !

अब किशोर उस जोश से, दो लंका गढ़ तोड़!!
आक्रमण करना भारी,
मारना मार दुधारी

भज्जी, धोनी, नेहरा, तेदुलकर युवराज !
झपटो लंका टीम पर,ज्यों चिड़िया पर बाज़ !!
प्रतिष्ठा की तुम सोचो,
टीम की टीम दबोचो

चुस्ती, फुरती, एकता, बहा स्वेद भरपूर !
लेकर आओ विश्व कप, तुमसे दो पग दूर !!
बज़रबट्टू छुडवांएं
सभी मिल जश्न मनाएँ

रखना गेंद गिरफ्त में, चौका धरो सतोल !
एक एक रण का यहाँ, है लाखों का मोल !!
नहीं लंका हो हाबी
करो तुम ताले चाबी

गया तिलक माला छुटी, रटे न राम-रहीम !
भेजे मैं कुछ रन बसे, छक्के बसे असीम !!
रही धोनी से आशा
सचिन पलटेगा पासा

धोनी की दादी कहे, इतराती मुस्काय !
पोता लाए विश्व कप , उसमे पीउ चाय !!
सौ के दर्ज़न वाला,
लगा रखूँगी ताला

किशोर पारीक "किशोर"

गुरुवार, फ़रवरी 17, 2011

चार दि‍न की जि‍न्‍दगी की,सि‍र्फ ये कहानी

चार दि‍न की जि‍न्‍दगी की,सि‍र्फ ये कहानी

भौर हुई सांझ हुई, बीती जवानी

सावन भी आयेगा, सावन भी जायेगा
सावन लुभायेगा, मन को हर्षायेगा
सुन्‍दर ये झरना क्‍या, पतझड से डरना क्‍या
मौसम पर रोना क्‍या, मौसम पर हंसना क्‍या
उंची नीची मोंजों पर, नाव है चलानी
चार दि‍न की जि‍न्‍दगी की,सि‍र्फ ये कहानी
भौर हुई सांझ हुई, बीती जवानी


पोथी सा बाना है, अक्षर खजाना है
शब्‍दों को तोल-तोल,प़ष्‍ठ को सजाना है
आवरण दि‍खावा है, जि‍ल्‍द भी छलावा है
कथ्‍य में जो दावा है, शि‍ल्‍प भी भुलावा है
आरभं से अन्‍त तक, बात बचकानी
चार दि‍न की जि‍न्‍दगी की,सि‍र्फ ये कहानी
भौर हुई सांझ हुई, बीती जवानी

जब से हम जागे हैं, बदहवास भागे है
सागर उलांघे है, पर्वत छलांगे है
बेबस अभागे हैं, हीरों को त्‍यागें है
खुशबू को भागे ये, सांसों के धागे है
खोज तेरे अन्‍दर की, यार इत्रदानी
चार दि‍न की जि‍न्‍दगी की,सि‍र्फ ये कहानी
भौर हुई सांझ हुई, बीती जवानी

राधा कन्‍हाई हैं, गुरू ग्रन्‍थं साई है
मुस्‍लि‍म ईसाई ने, बात ये सि‍खाई है
अक्षर अठाई है, सच्‍ची पढाई है
जग से वि‍दाई में, बस ये कमाई हैं
धरती से अम्‍बर तक, साथ यही जानी
चार दि‍न की जि‍न्‍दगी की,सि‍र्फ ये कहानी
भौर हुई सांझ हुई, बीती जवानी
चार दि‍न की जि‍न्‍दगी की,सि‍र्फ ये कहानी

कि‍शोर पारीक 'कि‍शोर'



शुक्रवार, फ़रवरी 11, 2011

गूँगा-बहरा जग हुआ, कौन सुनेगा पीऱ?






किस कदर काटी अंधेरी रात, हमसे क्या छिपा है? चाँद, सूरज रोशनी लाएँ तुम्हारी जि़न्दगी में, इस कदर से शुभ कामनाएँ, हों फलित तुम्हारी जि़न्दगी में,ऐसी सुन्दर शुभकामना से भरी चतुष्पदी के साथ ही अपनी ताज़ा चतुष्पदियों व अपने विख्यात गीत” गा मेरी जि़दगी कुछ गा सुनाकर” वरिष्ट साहित्यकार प्रो. नन्द चतुर्वेदी ने “तनिमा “मासिक पत्र के त्रिदिवसीय डॉ. भँवर सुराणा स्मृति समारोह के दूसरे दिन आयोजित कविसम्मेलन को जीवन्त व यादगार बनाया।

श्री नन्द चतुर्वेदी के मंगल सानिध्य में नगर के बाहर से आमंत्रित शायर व कवियों ने मुक्तकों, दोहों, गीत और गज़लों की रसवर्षा से देर रात तक श्रोताओं को बाँधे रखा। कवि सम्मेलन का आगाज़ संचालन कर रहे जयपुर से आए कवि श्री किशोर पारीक किशोर ने माँ सरस्वती की वन्दना से किया। दिल्ली से आये युवा शायर अनस ख़्ाान ने अनेक गंभीर दोहे पेश कर श्रोताओं को अचंभित कर दिया। उन्होंने तनिमा की संपादक को अपनी कुछ पंक्तियाँ यूँ समर्पित की- कि ख्वाबों में जो देखी थी, ऐसी हर सुबह आये, सूरज से शफक टूटे, सितारों में बिखर जाये।बहुत देखें है अहले ज़र, बहुत देखी मसीहाई,जो आप आयें तो महिफल का अलग ही रंग ढ़ल जाये।ज़र्रा- ज़र्रा रोशन हो, इतनी ताब बढ़ जाये,बुरी नज़र जो तुमपे डाले, आँखों से पिघल जाये।। श्री अनस ने अपने उम्दा दोहों-जैसे,बदन छुपा कर क्या होगा, जग चरित नहीं मज़बूत। तालों के भी क्या बस में, जब कुण्डी जाये टूट।।अलग-अलग हैं सब के रस्ते, अलग-अलग है चाल।बगुला नापे अंबर को, कछुआ चाटे ताल।।बड़े शहर से अपनी दूरी रखिये मीलों-मील।

पीपाड़ सिटी-जोधपुर से आमंत्रित कवि श्री राम अकेला ने हास्य की ताज़ा फूलझडिय़ाँ छोड़ीं व अपना रंग जमाया। उन्होंने शुरूआत इन पंक्तियों से की कि कविता की सर्दी से बचना चाहो तो,तालियों की रज़ाई ओढ़ लीजिये।कुछ मुक्तक सुनाकर उन्होंने आखिर में श्रोताओं को मुक्तक सुनाया कि“सुहाना हर दिन होगा, सुहानी हर रात होगी, आपको जो पसंद हो, वही बात भी होगी,बिछड़ रहा हूँ दोस्तों इस उम्मीद से, जि़न्दा रहे तो फिर मुलाकात होगी।



जयपुर से आये कवि श्री चन्द्र प्रकाश चन्दर ने दोहे पेश कर अपना प्रभाव छोड़ा - गूँगा-बहरा जग हुआ, कौन सुनेगा पीऱ? गौशाला सूनी पड़ी, मधुशाला में भीड़। उनकी गज़ल- ख़्वाब देखा था दिल लगाने का, बग पता गुम है आशियाने का, जयपुर के ही मशहूर गीतकार श्री बनज कुमार बनज ने एक से बढ़ कर एक अनेक दोहे सुनाकर सभी की वाहवाही ली, जैसे -फूलों के संग रह रहा, मैं माटी का ढ़ेर, मुझमें भी बस जायेगी खुशबु देर-सबेर।एक अकेला कर रहा, सब के सारे काम,सब मिल कर ऐसा करो, वो करले आराम।

इन दोहों के साथ ही उनके द्वारा प्रस्तुत गीत चला चला मैं चला रात भर,चंदा को कांधे पे धर कर ने कवि सम्मेलन को ऊँचाइयाँ प्रदान की।



जयपुर की शायरा व कवयित्री श्रीमती शोभा चन्दर ने चन्द मुक्तकों से अपना काव्य पाठ शुरू किया। उन्होंने एक मनोहारी राजस्थानी छन्द सुनाकर खूब दाद लूटी धन्य धरा मेवाड़ री जन्म्या पूत अनेक,

लाखां पर भारी पड़ै, थारौ जायो एक। उनकी गज़ल- रंगीनियों को आहे रसा कौन दे गया? शहनाइयों में $गम की सदा कौन दे गया? एवं सुमधुर गीत -यूँ ना देखो मुझे तुम सजन प्यार से, गीत बन कोई अधरों से कह जाऊँगी। -ने सभी को लुभाया । जयपुर के ही श्री किशोर पारीक स्वाईन फलू पर आधारित हास्य रचना से सभी को गुदगुदाने में क़ामयाब रहे। उनका गीत हम भारत हैं दुनिया वालों हम से बात करो ने कविसम्मेलन में राष्ट्रभक्ति के स्वर बिखेरे। देश भक्ति के गीत गाने वाले वरिष्ट गीतकार चित्तौडग़ढ़ से आये श्री अब्दुल जब्बार ने चन्द मुक्तक व अशआ्र कहे व सभी को सोचने पर मज़बूर कर दिया। जैसे जीने दो हर बशर को ख़्ाुद भी जिया करो, तितली के परों तलक की हिफाज़त किया करो जैसे मुक्तक से अपना प्रभाव $कायम किया। उन्होंने आगे भी बेहतरीन अशआर ्कहे-जैसे कि- मंदिर-मस्जि़द बनाने से बनाने से बेहतर है, सी गरीब की बेटी को गोद ले लेना।उस शहर से उजाले कोसों दूर रहते हैं, जिस शहर में एकता और भाईचारा नहीं होता।उनका गाया राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत गीत -मत लूटो इस देश के जैसा दुनिया में कोई देश नहीं, न$फरत के बीज बोने को, ये आँगन ये देश नहीं, भी सभी को झूमने को मज़बूर कर गया।

बाँसवाड़ा से आमंत्रित मशहूर शायर ने अपने बेहतरीन $कलाम पेश कर के कवि सम्मेलन को शानदार बना दिया। उन्होंने सबसे पहले कुछ मिसरे तनिमा को नज़र किये- किहज़ारों बुलबुले उठ-उठ के मिट जाते हैं दरिया में,न मौंजें याद रखती हैं ना साहिल याद रखता है, मगर वो $कश्तियाँ जो टक्कर लेती हैं तूफ़ाँ से, उन्हीं को मुद्दतों हर साहिबे दिल याद करता है।उनकी पेश की गई-गुलशन में जो परिन्दा चहकता दिखाई दे, सैयाद का उसी पर निशाना दिखाई दे।बेटा नहीं है घर में अगर तो क्या, बेटी का $कद भी बेटे से ऊँचा दिखाई दे।ने सभी के दिलों पर दस्तक दी। वहीं उन्होंने अपनी दूसरी गज़ल-जो साज़े अहले सियासत से राग निकलेंगे-तो आस्तीनों से ज़हरीले नाग निकलेंगे, मुझे य$कीन है ये बहुरूपियों की बस्ती है-यहाँ पे हंस की सूरत में काग निकलेंगे। -को सुना कर सभी को सोचने पर मज़बूर किया। उनकी अगली $गज़ल-क्यँू होता नहीं कोई असर मेरी दुआ का ,क्या अब भी गुनहगार हूँ,मैं अपने ख़्ाुदा का?मज़बूर हो के बेच रहा हँू मैं ख़्ाून भी अपना, करना है इन्तज़ाम मुझे माँ की दवा का।मत कर गुरूर वक़्त अगरमेहरबान है, क्या जाने कब मिजाज़ बदल जाये हवा का? उन्होंने दिलकश तरन्नुम में पेश कर खू़ब दाद लूटी। जनाब मेहशर अफगानी की बेहतरीन गज़ल-उसके घर मैं गया सोचते- सोचते, वो भी मुझसे मिला सोचते-सोचतेहो गये मुब्तला हम तो इफलास में, भाइयों का भला सोचते-सोचते। ने तो श्रोताओं को मुकर्रर-मुकरर्र कहने को मज़बूर कर दिया।



बूँदी से आये अंगद दैनिक के संपादक-प्रकाशक श्री मदन मदिर ने अपनी आक्रामक तेवरों में ओजपूर्ण कविता -जि़न्दगी जगाओ रे गीत को सजाओ रे, ये सारे अंधियारे मिलकर हमलावर हैं, समता की किरणों को नौंच-नौंच डालेंगे, कै़द कर लिया चाँद-सूरज को, चाँदनी को ये पंजे लील-छील जायेंगे सुनाकर कविसम्मेलन में श्रोताओं को मौजूदा हालात व यथार्थ से रूबरू कराया। जयपुर से आमंत्रित राजस्थान पत्रिका के समाचार समन्वयक श्री दिनेश ठाकुर ने अपनी बेहतरीन गजलों से कविसम्मेलन में वाहवाही पाई। उन्होंने गज़ल-कभी आँसू कभी ख़्वाबों के धारे टूट जाते हैं, ज़रा सी बात में क्या-क्या नज़ारे छूट जाते हैं। औररूठ गया जाने क्यूँ हमसे जाने क्यूँ घर छोड़ गया,नींद उठा के ले गया सारी, खाली बिस्तर छोड़ गया।ख़्ाुद में पाकीज़ा सी ख़्ाुशबू हरदम बिखरी रहती है,

जैसे तुलसी का पौधा वो मेरे अन्दर छोड़ गया। सुनाई। उनकी ये गज़ल भी सभी को छू गई- नये भी हैं पुराने भी, कई$िकस्से है जीने में ज्य़ादा लुत्$फ है उसमें जो $गम जितना पुराना है। कभी तुम जड़ को छूतेे हो, कभी शाख़्ाो को छूते हो,हवा छूकर बता देगी शजर कितना पुराना है? ऐसे कई अनूठे से अशआर् कह के श्री दिनेश ठाकुर ने अपना $खूब रंग जमाया।उनकी एक और गज़ल सभी ने पसंद की-वो ये थी -यही दस्तूर है शायद वफादारी की दुनिया का, जिसे तुम जिस कदर चाहो वही तकलीफ देती है। शिकायत कर रहा था आसमाँ से एक सहरा कल, मुझे ख़्वाबों में अक्सर इक नदी तकलीफ देती है।तनिमा की संपादक शकुन्तला सरूपरिया ने कविता-मोबाईल सैट नहीं होती हैं बेटियाँ एवं एक ग़ज़ल-ज़मीं हूँ मैं खुद ही मैं खुद आसमाँ हूँ, मैं दुनिया में तन्हा मैं खु़द कारवाँ हूँ मेरे बोल मीठे मेरे बोल सच्चे,मैं जिन्दादिली का ख़्ारा ख़्ाुद बयाँ हूँ। उन्होंनेतरन्नुम में पेश कर अपना प्रभाव $कायम किया।कविसम्मेलन की अध्यक्षता कर रहे श्री किशन दाधीच ने सबसे पहले एक गीत वरिष्ट कवि श्री नन्द चतुर्वेदी के नाम गाया-मुझको डर है तुम जाओगे, एक दिवस सबके, मनबसिया, नन्द तुम्हारे बिन गाएँगे, कैसे हम होरी के रसिया? जिसे सुनकर श्रोतागण विस्मित से रह गये। उनकी चिरपरिचित कविता ज्योतिपुत्रों आपकी सूचना के लिये-ने सभी को प्रभावित किया। वहीं उनकी गाई गज़ल -एक जुलाहा गा रहा है चरखियों की चाल पर,अब तुम्हारी चाल जैसी जि़न्दगी है आजकल, ने उस कवि सम्मेलन को सरस बना दिया।

कवि सम्मेलन के आरंभ में मुख्य अतिथि कारा.ना.विवि की कुलपति प्रो. दिव्यप्रभा नागर ने कहा कि कविता जो अपने परिवेश को संवेदना से भरती है वह इस कठिन समय में सभी के लिये बेहद आवश्यक है। वह कविता ही है जो मनुष्यता को संवेदना से जोड़े रखती है। उन्होंने अपने उद्बोधन में सभी से तनिमा के हाथ मज़बूत बनाये रखने की अपील भी की व संपादक शकुन्तला सरूपरिया के संपादन कौशल की पं्रशसा करते हुए उन्हेंं तनिमा के पाँच वर्ष पूर्ण होने की बधाई दी। विशिष्ट अतिथि जेके सीमेन्ट -निंबाहेड़ा के सलाहकार दोहा सम्राट श्री ए.बी. सिंह ने अपने दोहे सुना कर कवि सम्मेलन को नया माहौल दिया।- नहीं अकेले से चले दुनिया हो या देश, सभी तीन इसमें लगे, ब्रम्हा विष्णु महेश। सरिता जीवन दायिनी धरती मात समान, हर पत्थर शंकर जहाँ वो है हिन्दुस्तान। उन्होंने कहा कि यह दुनिया भले लोगों अच्छे कार्यों पर ही टिकी है, जीवन में हमारा यही प्रयास होना चाहिये कि हम अपने अलावा समाज व देश मानवता के बारे में सोचें। विशिष्ट अतिथि जीबी बिल्डस्टेट के मालिक व समाज सेवी श्री भरत शर्मा ने तनिमा की संपादक शकुन्तला सरूपरिया के 25 कोलाज़ व कविताओं की सूचना केन्द्र कलादीर्घा में फीता काट कर उद्धाटन किया। धन्यवाद की रस्म श्रीमती उषा किरण दशोरा ने अदा की।तीसरे दिन मुशायरा:::::::::

तनिमा के स्थापना दिवस पर स्व: डॉ. भँवर सुराणा स्मृति समारोह के तीसरे दिन सूचना केन्द्र सभागार में ही मुशायरे में उदयपुर व बाहर से आए शायरगणों ने गज़लों व नज़्मों की झड़ी लगादी और मुशायरे को यादगार बनाया। स्थानीय शायर पुष्कर गुप्तेश्वर ने मधुर स्वरों में गाकर वीणावादिनी जय हो माँ -माँ शारदे की वन्दना से मुशायरे का अच्छा आगाज़ किया। उन्होंने अपनी दो उम्दा गज़लें- जैसे दिल का धडक़ना ज़रूरी है, तुम्हारे बिना जिंन्दगी अधूरी है और हौसला तोड़ तोड़ रखता है,वाह क्या ख्ब जोड़ रखता है- सुनाकर सभी को लुभाया, वहीं राजस्थानी में मूंगो घणो मुजरो, सस्तो मती जाण, जैसे दोहे भी सुनाये। उनके बाद शायर इ$कबाल हुसैन इ$कबाल ने अपने कलाम पर खूब दाद लूटी- कभी राज़ ये भी समझ कर तो देखो, किनारों से उलझा समन्दर तो देखो। या- इधर से वार होता है, उधर से वार होता है, बताएँ क्या तुम्हें कैसे स$फीना पार होता है। दोनों पालों में मैं ही खेलूँ, मैं ही फेंकू मैं ही झेलूँ -जैसी $गज़लें सुनाकर उन्होंने सियासत पर तंज किये व दाद पाई। मज़ाहिया अन्दाज़ के शायर जनाब मुश्ता$क चंचल ने तनिमा के नाम सबसे पहले कुछ मिसरे पढे- $खबरें साहित्यिक पढिय़े, मज़मून ताज़ा पढिय़े,जो पढऩी हों नब्ज़े धडक़ने, तो $खरीद के तनिमा पढिय़े। उनके सभी मज़ाहिया $कलाम श्रोताओं के चेहरों पर मुस्कान बिखेर गये। शायर श्री जगजीत सिंह निशात ने तरन्नुम में गाते हुए अपनी ख़्ाूबसूरत सी नई $गज़ल में मौजूदा अख़्ाबारी दुनिया पर तंज कसा कि- कल जो गुज़रा हड़तालों में, घेरावों में और नारों में, सच्चा-झूठा छपा हुआ है देख लो सब अख़्ाबारों में। तूने कितने कै़द किये, मैंने कितने कै़द किये,ऐसी होड़ लगी है छोटी-छोटी सी दीवारों में। घर-घर आँगन-आँगन घूमा, चूल्हा-चूल्हा छान चुका, ये सर्दी कैसे गुज़रेगी, आँच नहीं अंगारों मेंंं। शायरा ज़ौहरा अहसान ने अपनी माँ के उन्वान से बेहतरीन नज़्म कही व अपनी $गजलों पर सब की तारी$फ हासिल की,अपने अहसास की शम्मों को ऐसे गुल कर कर के,

कितने दिन ख़्ाुद को उजालों से बचा पाओगे,या जि़न्दगी ऐसे कटी कोई सज़ा हो जैसे, सने मुझ पर कोई अहसान किया हो जैसे। और महफ़िल जिनमें परवाज़ की ताकत न रही बाकी, उन परिन्दों को घरौंदो में बसाया जाये जैसी गज़लों से अपना शानदार रंग महफ़िल में जमाया। शायर जनाब इकबाल ने चन्द खुले अशआर् भी कहे – अगर जन्नत कहीं होती ज़मीं पर, यहीं होती, यहीं होती होती यहीं पर। या हरे शजर ना सही सूखी घास ही रहने दे, अरे ज़मीं के बदन पर कुछ तो लिबास रहने दे।

उनकी तरन्नुम में पेश की गई गज़ल पराये गम में यूँ आँसू बहाने कौन आता है, पुरानी क़ब्र पर शम्में जलाने कौन आता है? ने सभी को झूमने पर मज़बूर कर दिया। हमें इस बात पर ही सबसे पहले $गौर करना है पड़ौसी को पड़ौसी को लड़ाने कौन आता है?

तनिमा की संपादक शकुन्तला सरूपरिया ने बेटियों के कोख में मारे जाने पर गज़ल कही-पराया धन क्यूँ कहते हो तुम्हारा हीखजाना हूँ जीने दो कोख में मुझको मैं जीने का बहाना हूँ। साथ में ही उन्होंने अपनी नज़्म-ये बेटियाँ हैं कहानियाँ कि कहानियों सी बेटियाँ-हर ज़ुल्म के निशाने पे निशानियों सी बेटियाँ- सुनाकर सभी को सोचने पर मज़बूर कर दिया।

दिल्ली से आये अनस खान ने दोहे व अशआर् कहे- महानगरों की जि़ंदगी पर उन्होंने कुछ यूँ बात रक्खी- मुख़्तसिर सी उम्र में बस एक जवान रहती है, ना कोई दादी रहती है ना कोई नानी रहती है। सबने इसे पसंद भी किया।




शनिवार, जनवरी 22, 2011

सूरज जिद्दी प्रयावरण

बुधवार, जनवरी 12, 2011

लोहड़ी की खिचड़ी

लोहड़ी की खिचड़ी


खिचड़ी तहरी हो गयी, खाने लगे पुलाव
अब लोहड़ी पर है नहीं, पहले जैसा चाव

खिचड़ी का फिर क्यों भला, उतरे मुह में कौर
जब पिज्जा से फास्ट फ़ूड, मिलते चारों और

पान मसाले फांकती, गुटकों की सौगात
त्योंहारों पर खिचड़ी, करते कैसी  बात ?

गर खिचड़ी भी हो गयी, पञ्च सितारा ब्रांड
न्यू जनरेशन खायेगी, मिला मिला कर खांड

क्या खाए खिचड़ी भला, महंगाई के भाव
चावल चीनी दाल  सब,  देते हमको घाव

खिचड़ी के हमने सुने, होते चारों यार
दही, घिरत, या गुड रहे, मिर्चीदार अचार
किशोर pareek " किशोर"

पतंगें

उडती हुई दो पतंगें आपस में उलझ पड़ी गुथम गुत्था ! दोनों ही कट कर एक छत पर जा पड़ी ! नीली नें लाल से पुछा ! क्या मिला मुझे काट कर ? लाल वाली बोली मैं कब तुमसे लड़ना चाहती थी पर मेरी डोर पर मेरा बस ही कहाँ था ! हाँ सखी पतंगें सिर्फ उड़ सकती पर उनकी डोर किसी और के हाथ होती है जो उन्हें लडाता है काटता है और फिर लूट भी लेता है ! हाँ सखी हमारी भी हालत भारत की जनता की तरह ही है जिसकी डोर जिन नेताओं के हाथ में है वही उन्हें लड़ाते कटाते हैं और लूट भी लेते है

सोमवार, जनवरी 10, 2011

काव्य टिपण्णी

भगवान भाग्य बाँट रहे थे, सारे कवि घूमने चले गए,  लौटने पर भगवान ने बताया, अरे तुम्हारा भाग्य तो मैंने दूसरों में बाँट दिया . कवियों  ने विरोध किया तो भगवान ने सांत्वना दी, देखो है तो तुम्हारे ही भाग्य का . बस तुम्हे हरेक जगह से जा जा कर लाना होगा,  इसीलिए तो सारे   कवि लगातार प्रवास किये जा रहे हैं ..

शनिवार, जनवरी 01, 2011

पतंग और दुनियादारी

पतंग और दुनियादारी


नील गगन के विस्तृत नभ पर, पंतग उडी है इधर उधर
सर- सर- फर-फर-सर- सर-फर-फर -सर- सर-फर-फर -सर- सर-फर
जब तक स्वांसों के माझें संग, इसकी यारों बनी रहे
हरसाए हम देखो तब तक आकाशों मैं तानी रहे
पवन बह रही कितनी सुन्दर, फिर भी क्यों हिचकोले हैं
होडवाद के चक्कर में तो, लगतें ये झकझोलें  हैं
पवन रहे अनुकूल इसी पर रहता है कन्ना निर्भर
झोंका नीचे खाने पर, लगने लगता हमको डर
पक्की सद्दा के संग रब हम, तेज़ स्वभाव को    बांधेगे
देर तलक अपना कन्कोवा, आसमान में में टांगेंगे
केवल तन चखी चाहो तो कारलो इसको इधर उधर
सर- सर- फर-फर-सर- सर-फर-फर -सर- सर-फर-फर -सर- सर-फर
नील गगन के विस्तृत नभ पर, पंतग उडी है इधर उधर

सूत्र हमारे हाथों में पर मन  पंतंग ज्यों डोल रहा
पेच लड़ने कोई आया तो भिड़ने को बोल रहा
अक्सर छोटों को बड्कों से , हमने तो कटते देखा
पिसल्ची को बड़ी ढाल से, बचते और भागे देखा
खिंच जायेगी झट से भैया, लालच में आओगे गर
दूर रहो दंगल बाजों से निरपेक्ष भाव से देखो भर
तब  तक कनखी उडती रहती, जब तक डोरी हाथ है
पतंग डोर का चोली दामन, जैसा होता साथ है
इक बिन दूजे ही होती, बिलकुल नहीं कदर
 सर- सर- फर-फर-सर- सर-फर-फर -सर- सर-फर-फर -सर- सर-फर
नील गगन के विस्तृत नभ पर, पंतग उडी है इधर उधर

मझां होता तेज़ स्वाभाविक, किरच काच की रहती है
बेचारी सादा जुल्मों को मूक हुई सी सहती है
कांफ पतंग की रीड लचीली, वही पतंग की शान है
अकडपना और कड़कपना तो, मुर्दों की पहचान है
सुन्दरता के चक्कर में तुम, कई जोड़ की लाओगे
बीच भंवर में फँस जाओगे, रोवोगे चिल्लाओगे
मोह छोड़ दे रंगों का तो, खुश रहे हर नारी नर
सर- सर- फर-फर-सर- सर-फर-फर -सर- सर-फर-फर -सर- सर-फर
नील गगन के विस्तृत नभ पर, पंतग उडी है इधर उधर


किशोर पारीक" किशोर"