किशोर पारीक "किशोर"

किशोर पारीक "किशोर"

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किशोर पारीक 'किशोर' गुलाबी नगर, जयपुर के जाने माने कलमकार हैं ! किशोर पारीक 'किशोर' की काव्य चौपाल में आपका स्वागत है।



मंगलवार, अक्तूबर 13, 2009

गंगा को अविरल बहने दो, जमना को अविरल बहने दो


गंगा को गंगा को अविरल बहने दो, जमना को अविरल बहने दो
मत छेडो इसकी धारा को, उज्ज्वलता रहने दो
गंगा को अविरल बहने दो, जमना को अविरल बहने दो
koi
जन्नत से जब उतरी गंगा माँ पावनता की थी मूरत
कल- कल करती इसकी लंहरे, सचमुच में थी शीतल अमृत
गंगाधर शिव ने जटा खोल, तब इसका वेग संभाला था
इतराती, इठलाती गंगा ने, स्वर्ग यहीं रच डाला था
सब लिखा शाश्वत ग्रंथो में, दुनिया जो कहती कहने दो
गंगा को अविरल बहने दो, जमना को अविरल बहने दो
ये पाप नाशनी है गंगा, ये रोग नाशनी है गंगा
ये मोक्ष दायिनी है गंगा, ये पुण्य दायिनी है गंगा
घर घर में पुजता गंगा जल, ये स्नेह दायिनी है गंगा
गंगा-जमनी तहजीबों , संवाहन करती है गंगा
अंधा, लालच, स्वारथ छोड़ो, कुछ निर्मलता के गहने दो
गंगा को अविरल बहने दो, जमना को अविरल बहने d
अब इसके बेटों ने देखो, कैसी मचाई है
लोरी गाती थी जो गंगा, वो क्रन्दन कर चिल्लाई है
रूनझुन पायल अब ना बाजे, पनघट पै ना दिखे बाला
मुल्ला पण्डित और नेता ने कितना ही शोषण कर डाला
यारों मत बांटो घाटों को, तट पर अच्छाई रहने दो
गंगा को अविरल बहने दो, जमना को अविरल बहने दो
उजले तन पर हमने खोले, कितने भीषण विष के नाले
सीवरेजो का भी मुह खोला , औधोगिक कचरे भी डाले
आने वर्षो में जब, सारी खुशिया बह जायेगी
भावी पीढी ताने देगी सूखी, गंगा रह जायेगी
सीमाए सब पर हुई , अब और परीक्षा रहने दो
गंगा को अविरल बहने दो, जमना को अविरल बहने दो
मुझको माँ कहने वालों पे, असर नही है रोने का
मेरा काम बचा है केवल, इनकी लाशे ढोने का
में हूँ एक , पाप अरब का , तर्पण ना कर पाउंगी
मेरा तर्पण कोट करेगा, बेटा जब मर जाउंगी
मृत्यु शैया पैर लेती हूँ, अन्तिम स्वांसे लेने दो
गंगा को अविरल बहने दो, जमना को अविरल बहने दो

गुरुवार, अगस्त 27, 2009

जागो ब्राह्मण जागो जागो भगवान परशुराम जयन्‍ती के अवसर पर गीत

गीत
धरती रथ जिसका चार वेद, जिसके घोड़ों के स्‍यंदन है
जो क्रांतिदूत, जमदग्‍नि पूत, उस ब्राह्मण का अभिनंदन है
सिर जटा जूट, साहस अटूट, रू रू नामक मृग की मृगछाला
इक्‍कीस बार जिसने धरणी को, वीर विहीन बना डाला
कुरूक्षेत्र धरा पर बाँध बाँध , अनगिनती बैरी काटे थे
जो पाँच सरोवर रीते थे, उसको अरि के शोणित से पाटे थे
है हय अर्जुन के सहस पुत्र, अपने ही हाथों मारे थे
उस शोर्यवान के आगे सब, अत्‍याचारी मिल हारे थे
उस वीर विप्र ने समय नब्‍ज को, सही समय पर जाना था
जब नाक तलक पानी आया, तब अपना फरसा ताना था
अवतारी के चरणों अर्पित, शब्‍दों को केसर चन्‍दन हैं
जो क्रांतिदूत, जमदग्‍नि पूत, उस ब्राह्मण का अभिनंदन है

जब परशु उठा था परशुराम को, सन्‍नाटा सा छाया था
भय बिन प्रीत नहीं होती, सिद्धान्त समझ में आया था
हम ऋषियों की संतानें हैं, ऊँचे उठने की ठाने हम
अपने पुरखों के कर्मयोग, प्रज्ञा को भी पहचाने हम
अपना एकत्‍व परशु जाने, अपना गत गौरव याद करें
बेदर्द जहां पर हो हाकिम, तब क्‍यों फिजूल फरियाद करें
हे विप्र उठो अँगड़ाई लो, चाणक्‍य सरिस बन कर आओ
ज्ञान ध्‍यान विज्ञान पढो, दुनिया पर फिर से छा जाओ
हमको अंगुलि से बता रहा, विस्‍तृत पथ वह भृगु नंदन है
जो क्रांतिदूत, जमदग्‍नि पूत, उस ब्राह्मण का अभिनंदन है

जिसके हाथों में बल होता, जग को तो वही चलाते हैं
दुनियां में वे ही पूजित हैं, उनके ही नगमें गाते हैं
जागो ब्राह्मण जागो जागो, अपने वर्णोतम को जानो
पर मरीचिका में मत भटको, तुम वर्तमान का पहचानो
जजमानी के दिन बीत गए, जजमानों ने कसली अंटी
अपनी संस्‍कृति पर निष्‍ठा पर, खतरे की आज बजी घंटी
ब्राह्मण के तो अस्‍तित्‍व तलक पर, घोर घटा मंडराई है
अब तिलक जनेऊ चोटी औ, मर्यादा पर बन आई है
ब्राह्मण के धर आज विकट, रोजी रोटी का क्रंदन है
जो क्रांतिदूत, जमदग्‍नि पूत, उस ब्राह्मण का अभिनंदन है

हे शारदे हमें तो यही दान चाहिये

धन-धान चाहिये ना सम्‍मान चाहिये
हे शारदे हमें तो यही दान चाहिये
देना है तो भरदेना अल्‍फाज में ताकत
फिर हाथ में ना तीर ना कमान चाहिये

लेखनी में शारदे मां, जान चाहिये
अशआर की तलवान में भी सान चाहिये
बजता रहे मां ज्ञान का और ध्‍यान का डंका
मुक्तक

मैं तो हर बार कहूँगा, ये आजादी मेली है

अपने को साज बताते हुवे शर्म आती है,
खुद को आवाज बताते हुवे शर्म आती है
जिस मुल्‍क में इंसान भूखा हो मेरे दोस्‍त
उस मुल्‍क को आवाज बताते हुवे शर्म आती है

जब तक भूखा सोये बचपन, जवानी ढूँढे रोजी को
लाश उढाने को न कपड़ा, बेबस फैलाये झोली को
पुलिस द्वारा स्वयं फ़रियादी, लूटे खसोटे जाते हों
निर्दोषी जेलों में तड़फे, हत्‍यारे फांसी से बच जाते हों
इंसाफ जहां का हो झूठा, और भ्रष्ट प्रशासन हो सारा
झूठी शिक्षा की मार ने, हर युवक को बेमौत मारा
जहां भूकी माताओं ने निज बेटों की जाने लेली है
मैं तो हर बार कहूँगा, ये आजादी मेली है

छात्र बसों को जला रहे, पुलिस निहारे जाती है
मैं पूछ रहा हूं क्‍या ये आजादी कहाती है
शिक्षा मन्‍दिर बच ना पाये राजनीति की चाल से
हर आँगन प्रांगण पींडीत हे घेरा बन्दी हड़ताल से
आजादी का वीर शिवा, सत्‍ता दुश्‍मन को सौंप रहा
भामा शाह धन की ही खातिर राणा के चाकू धोप रहा
इस मुल्‍क की पद्मिनी ही खिलजी से जाकर बोल रही
भरी सभा में आज स्‍वयं ही द्रोपती आँचल खोल रही
रोजाना फांसी पर लटक रही यह दुल्‍हन नई नवेली है
मैं तो हर बार कहूँगा, ये आजादी मेली है

जहां का ईश्‍वर अल्लाह ही आपस में लड़ जायेगा
क्‍या वों अभागा मुल्‍क देश फिर भी आजाद कहायेगा
गांधी का सपना टूट गया नेहरू की आशा बिखर गई
शासन तंत्र नहीं बदला सत्ता पर सत्ता बदल गई
समाजवाद का देकर नारा वोट मांग लजाते हें
स्‍वयं पहले और समाज बाद का, सिद्धांत यहां चलाते है
जनता के चूसे पैसे करली खड़ी हवेली है
मैं तो हर बार कहूँगा, ये आजादी मेली है

हिन्‍दी दिवस पर - अपनी हिन्‍दी । i


अपनी हिन्‍दी कुछ लोगों का, क्यों लगती बैगानी सी
हिन्‍द देश में हिन्‍दी दासी, अगरेजी पटरानी सी
मानव तन देकर वाणी दी, ईश्वर ने उपकार किया
देवनागरी लिपि देकर, फिर भाषा का उपहार दिया
घिस घिस कर मां की घूटी संग हिन्‍दी का अनुपान किया
जिसमें रोये और हंसे हम, सोचा समझा ध्‍यान किया
भाषायें है रंग रंगीली, भाषाओं के वंश यहाँ
प्राकृत पाली सौर सैनी है, संस्कृत है अपभ्रंश यहाँ
भाषाओं के बाग़ यहां पर अद्भुत और विहंगम हैं
भाषाओं की धाराऐं है और त्रिवेणी संगम है
भाषा संगम में है हिन्‍दी गंगाजी के पानी सी
अपनी हिन्‍दी कुछ लोगों का, क्यों लगती बैगानी सी

समवेत गान की अद्भुत क्षमता इस हिन्दी भाषा में है
सात लाख शब्‍दों की ताकत, भी हिन्‍दी भाषा में है
विकसित राष्‍ट्र बनाने की जिसमें थोड़ी अभिलाषा है
जन जन को जोड़े आपस में, ऐसी हिन्‍दी भाषा है
शोषक की भाषा को पकड़े रखना तो दुखदायक है
मैकाले की रूह दासता का ही तो परिचायक है
जिसकी मायड़ भाषा समझी जाती जो बेचारी है
राष्‍ट्र कोनसा दुनियां में वों, गौरव का अधिकारी है
अँग्रेज़ी क्यों लगती उनको, लन्‍दन की महारानी सी
अपनी हिन्‍दी कुछ लोगों का, क्यों लगती बैगानी सी
मींरा से उसके नटनागर हिन्‍दी में बतलाते थे
रसखान सूर कान्हा को हिन्दी में तान सुनाते थे
और कबीरा ने हिन्दी की साखी में जो बात कही
तुलसी के मानस से जमकर हिन्दी की रसदार बही
दिनकर पन्‍थ महादेवी ने हिन्‍दी का सरसाया था
और निराला ने हिन्दी में ही साहित्य रचाया था
हिन्दी के मंत्रों से ही तो, राष्‍ट्र चेतना आयी थी
अँग्रेज़ों को भगा देश से, हमने आजादी पायी थी
उस हिन्दी का मान नहीं हैं, मुझको है हैरानी सी
अपनी हिन्‍दी कुछ लोगों का, क्यों लगती बैगानी सी

कहने को तो हिन्‍दी में ही सारे विधि विधान है
मान दे रहा इसको देखो अपना संविधान है
फिर भी सिसक रही हिन्‍दी क्‍यों, अपने भारत देश में
बैठे हैं कुछ गोरे अब भी, अपनों के परिवेश में
एक दिवस हिन्दी का केवल, भला नहीं हो पायेगा
जब तक पूरा देश, ह्रदय से इसे नहीं अपनायेगा
माना विश्व संवादों हेतु अन्‍य भाषाऐं धूरी है
हिन्दी को मां माना है, तो सेवा भी जरूरी है
हिन्दी दवों की वाणी है, रानी है महारानी सी
अपनी हिन्‍दी कुछ लोगों का, क्यों लगती बैगानी सी

गीत

फेकिये आरक्षण के झुनझुने बेसाखियों को

सदियों से जोतियों में छोटी सी दरार थी जो
वही अब फैल गई, खाई जैसी हो गई
अगडों के तगड़ों के, पिछडों के झगड़ों में
देश की छबीली छवि, भाई कैसी हो गई
मंडल कमंडल से वोट बैक बन रहे
नेताओं की चाँदी है, कमाई कैसी हो गई
संसद में गूँगे बहरे, बापू तेरे बंदरों की
खोपड़ी सदेह सब मलाई, में ही खो गई

गूदड़ी के लालों का, ज्ञान जब व्‍यर्थ होगा
योग्‍यता और श्रेष्‍ठता को, राष्‍ट्र, ठुकरायेगा
तो ए पी जे कलाम, तेरा दो हजार बीस तक का
सपना अधूरा का, अधूरा रह जायेगा
समता के न्‍याय की धज्‍जियां गर यों ही उडी
प्रतिभा पलायन फिर कैसे रुक पायेगा
पढे लिखे युवकों को, रोजगार होगा नहीं

दीजिये आरक्षण तो प्राथमिक शिक्षा में दो
खूब पढवाइये और काबिल बनाइये
फेकिये आरक्षण के झुनझुने बेसाखियों को
योग्‍यता का माप दण्ड सबपे लगाइये
त्‍याग दीजे विष भरी, रेबडियां बांटना
आत्‍म विश्‍वास कुछ इनमें जगाइये
रंगे सियारों मत तोडो, मेरा देश तुम
भाइयों को भाइयों से मत लडवाइये

कवित्त

बिन फेरे हम तेरे

पशु हार्ट अटेक से नहीं मरते
क्‍यों कि बो शादी नहीं करते
क्‍या आदमी उससे भी गया गुजरा हैं
शादी तो साक्षात दासता का पिंजरा हैं
महाराष्‍ट्र में लिव इन रिलेशन ने,
संबंधों पर मोहर लगाई हैं
बल्लियों उछल रहें हैं लाखों कुँवारे
यह बात उन्हें बहुत पसंद आई हे1
आदमी कुंवारा पैदा हुवा था,
कुंवारा ही जिये, कुँवारा ही मरे

जहां कही स्वादिष्ट चारा देखे,
वहीं चरे
अब भविष्‍य में शादी की क्‍या गरज
क्‍यू बिगड़ावे अपनी विगत
अब अनेक बुराइयों का होगा
दी एंण्‍ड
क्‍यों कि ना वाइफ होगी,
ना हसबेण्‍ड
पति, पत्‍नी और वो का चक्‍कर भी
दूर होगा ना लड़की मजबूर होगी
ना लड़का मजबूर होगा
लाफटर लतीफ़ों में कैसे
पत्नी को कोसेगें
कवि गीतों में कैसे
हास्‍य परोसेगें
घर घर सियासत की तरह
गठ बंधन होंगे
सत्‍ता सुख की तर्ज पर
गृह सुख मिल बांट खायेंगे
क्लेश हुवा तो फिर
अलग अलग हो जायेगें
जब मूढ़ हुवा तो
बिन फेरे हम तेरे
नहीं तो तू तेरे मैं मेरे
सबसे ज्‍यादा चिंता तो हमें
एकता कपूर की सता रही हैं

वो पठठी तो ज्‍यादातर
सास बहू के सिरियल ही बना रही हैं
अब बन्‍द हो जायेगा
सालियों का जूते छिपाना
भूल जायेगें सलमान का वो गाना
दीदी तेरा देवर दीवाना
हाय राम कुडियों को डाले दाना
अब बेटी के बाप को
चौरासी लाख योनियों के
संचित पाप को
बेटे के बाप
अर्थात पीवने सांप
के चरणों में पग़डी रखने की
नौबत नहीं आयेगी
आँखें भी आंसू नहीं बरसायेंगीं
न ही बिटिया दहेज़ के लिये
जलाई जायेगीं
लिव इन रिलेशन हेतु
अब कुण्‍डली नहीं
सेलेरी स्लिप की बात होगी
सुहाग रात प्रत्‍येक रात होगी
पिछले प्रेम संबंधों का नहीं होगा फेरा
एक के मरते ही दूसरे की जिंदगी में
फिर आयेगा नया अँधेरा
नया फूल देखकर तितलियां
गुनगुनायेगी
सुन्‍दर घाट देखते ही मछलियां
आशियाना वहीं बसायेगी
मियां बीबी राज़ी तो क्‍या करेगा काजी
जैसे नारे होंगे बहुतेरे
या गाने होंगे बिन फेरे हम तेरे
सेक्‍स, रोमांस, मोज-मस्ति,
हम तो नये जमाने की बात करतें हैं
सांस्‍कृतिक पतन, चरित्र हनन,
ये आप किस जमाने की बात करतें हैं।

नेता जी का विवाह

नेता जी का विवाह
पक्‍की उमर के नेता ने
ब्याह रचाया
तो हमने
यह सवाल उठाया
हे मेरे देश की नाव के
तारनहार
इस उमर में
ये विवाह और प्‍यार
नेताजी ने भरी आह
कहने लगे
ये हैं मेरा है
मध्‍यावधि विवाह
आगे की बात सुन कर
हम रह गये दंग
कहने लगे
मेरा पहला विवाह
हो गया था भंग
किशोर पारीक"किशोर"

अँग्रेज़ी टाँग

अँग्रेज़ी टाँग

हमारी एक महिला मित्र
संस्कारित उनका चरित्र
अँग्रेज़ी टाँग तोड़ने की लत
बातों में कई बार बिगाड़ी गत
एक बार मेरे दोस्‍त की शिकायत
दर्ज कराती सुनाई दास्‍तान
किशोर जी आपका दोस्‍त
नहीं करता हमारा सम्‍मान
मैंने पूछा गुस्‍सा कब तक जताओगी
या यो ही बेचारे को बेवफा बताओंगी
बोली मैं उम्र में बड़ी हू इसी लिये
मुझे इस बात पर आती हैं रिस
रोज मिलता हैं लेकिन
कभी नहीं करता हैं किस
एक दिन टिकट विण्‍डो पर
उनका यह कहना
भाई साहब जरा
जरा चोमू का स्‍टेम्‍प देना
कभी रेल के डिब्‍बे
उनके शब्‍दों में बॉक्स हो गये
हमारे लिये मजेदार जोक्‍स हो गया
एक दिन हमारे घर आयी
घरवाली से मेरी तकरार उसे नहीं भाई
तो दुनियादारी की बातें हमें समझाई
पति पत्‍नी का संबंध
जैसे गुलाब में छिपी हो सुगंध
जीवन रूपी गाड़ी में
प्‍यार का इंधन भरे
थोड़ा टायलेट किशोरजी आप
थोड़ा टायलेट भाभी आप करें
एक दिन उसे परेशान देखा
चेहरे पर थी चिन्‍ता की रेखा
मैंने पूछा मेडम
क्‍या टेशन नजर आ रहा है
बोली सुबह से ही उदर में
  ! हेड़क सता रहा हैं

फटे होठों की दवाई


फटे होठों की दवाई
फटे होठों से परेशान
हमारी काम वाली
बाई
श्रीमती जी के पास
आई
बीबी जी प्‍लीज दे दो
कोई अच्‍छी सी दवाई  
पत्‍नी ने मजाक में कहा
इलाज हैं बस एक
किस
बड़ा ही इजी
बोल तेरे साजन को
वो किस काम में
इतना बीजी
वेचारी बाई
किस का मतलब
नहीं समझ पाई
बोली बीबी जी
ये एहसान नहीं
भूलाउंगी
साहब को फोन कर दो
मैं सांझ को
आंउगी
  उन्हीं से
ले जाउंगी
किशोर पारीक "किशोर

चुनाव आ गये,

किसानों के कर्ज माफ
 चुनाव आ गये,
गाँव के मंचों पे
नेताजी छा गये
कहने लगे
नहीं होगी बिजली
कभी भी गुल,
और बनवा दूंगा में
नदी पर पुल,
एक वोटर
हँसते हुवे बोला
महोदय
आपका तो वास्‍तव में
कोई सानी नहीं हैं
सरकार
हमारे गांव की नदी में तो
बरसों से पानी नहीं हैं
दोस्तों आप
मत घबराओ,
देखो मुझे जितवाओं,
जैसे ही में
विधायक की शपथ लूगा,
मैं पुल के साथ
नदी भी बना दूंगा

चुनाव

चुनाव प्रचार में एक
नेता ने मुंह खोला
हमसे बोला
देखो हम आ रहे हैं
जनता के बीच रोजाना
हमने कहा
अभी तो आपको हैं
बोट पाना
फिर कही खोजाना
या पाँच साल
के लिये सोजाना

गधे का चिंतन

गधे का चिंतन गजब होता हैं
मिठाई को देख कर रोता हैं
हे भगवान मेरी किस्‍मत भी हैं खोटी
  काश यह मिठाई भी घास होती

योग का चक्कर

योग का चक्कर
राम लाल ने रामदेव की
अलोम विलोम
और कपाल क्रिया
के बल पर
ढेड सो साल की उम्र के बाद
मोत पाई
स्‍वर्ग में बीबी भी
साथ चली आयी
वहां सोमरस से भरे
रामझारे थे
अप्‍सराओं के नशीले
इशारे थे
और भी अनेकों मनभावन
नज़ारे थे
रामलाल ने
बीबी को लपकाया
तुमने ही मुझे
योग के चक्‍कर में अटकाया
तेरे और रामदेव के
कहने में नहीं आता
तो ये मजे
सो साल पहले ही 
 पा जाता

नेताजी एवं ढोकला

नेताजी
प्रेमिका से बोले
प्रिये
तुम हर दम मेरे साथ रहो
मेरे कान में
कुछ हल्‍का सा,
नर्म सा, मीठा सा
कहो
प्रेमिका ने टाली
कुछ ऐसे बला
प्‍यार से कान में कहा
ढोकला
किशोर पारीक "किशोर"

शनिवार, अगस्त 08, 2009

जयपुर के साहित्‍य शिल्पी

जयपुर के साहित्‍य शिल्पी
साहित्‍य और कला की दृष्टि पांडित्‍य और शिल्‍प की दृष्टि से अन्‍तपुरों को रति और काव्‍य-रीति की दृष्टि से- उदारचेता और दानी राजाओं की दृष्टि से- कलाकारों और भक्‍तों की दृष्टि से जिस नगरी ने भारतवर्ष में अपना अन्‍यतम स्‍थान बनाया उसे सवाई जयसिंह, जयपुर नरेश न बसाया था। ज्योतिष और, कला-कोविदो, पंडितों, गुणीजनों से इस प्रकार शोभा अभिमण्डित किया था कि जयपुर ‘ द्वितीय काशी’ के नाम से विख्‍यात हो गया। एक समय था जब पांडित्‍य और शास्‍त्रार्थ, प्रस्‍तुति और पुष्टि, खण्‍डन और मण्‍डन, काव्‍य और शिल्‍प जैसे विषयों पर राजा से लेकर साधारण प्रजाजनों तक गम्‍भीर चिन्‍तन को आयाम दिया जाता था।
मुग़ल साम्राज जब अपने वैभव के चरम शिखर पर था और जबसे उसने पतन की और प्रयाण आरंभ किया दानों ही स्थितियों में जयपुर आमेर के कच्‍छवाह नरेशों ने कवियों, कलाकारों, गुणीजनों को अपने यहां राज्‍याश्रय दिया । उनके नाज नखरे उठाये और लेखनी के कारीगरों से अमर हो उठे। जिनकी पार्थिव देहयष्टि चित्रों से रक्षित रही या कवलित हुई पर ‘ बस कहिबे की बातें रह जायेगी-1’ और ये बातें आज भी उनके आश्रित कवियों के कविकर्म में सुरक्षित हैं। वैसे तो सम्‍पूर्ण राजस्‍थान के राजा ही परम उदार और कवियों गुणियों का आदर करने वाले हुए हैं, परन्‍तु जयपुर को राजवंश इस दृष्टि से बहुत अग्रणी रहा हैं।महाराजा पृथ्‍वीराज, महाराजा साँगा के समकालीन और नाथ मतानुयायी थे। इनके शासनकाल में श्रीकृष्ण दास ’पयहारी’ वैष्‍णव सम्‍प्रदाय के प्रसिद्ध कवि तथा संत हुए हैं। इनका उल्‍लेख ‘अष्‍टछाप’ और उनके शिष्‍य ‘भक्‍तमाल’ के रचयिता नाभादास प्रसिद्ध संत कवियों में गिने जाते हैं।
महाराजा मानसिंह आमेर राज्‍य तथा राजवंश को अखिल भारतीय महत्‍व प्रदान करने वाल, कुशवाह कुल भास्‍कर, वीर शिरोमणि, महाराजा मान साहित्‍य प्रेमी, रसज्ञ तथा गुणग्राहक थे। उनकी वीरता के लिये ये पक्तिंयां प्रसिद्ध हैं ।जननी जणे तो ऐसा जण, जे डो़ मार मरद्ध, समंदर खाडो़ पाखलियो- काबुल घाती हद्द।और कविगण पर प्रसन्‍न होने वाले उस दानी म‍हीप ने कवि हरनाथ की इस रचना पर एक लाख रुपये का नकद पुरस्‍कार दिया था ।
बलि बोई कीरति-लता, कर्ण करी द्वै पात। सींची मान महीप ने, जब देखी कुम्हिलात ।।उनके बारे में यह कथ्‍य भी बहुत प्रसिद्ध हैं कि किसी कवि को एक बनिये ने एक हजार रुपये के लिये बहुत तंग कर लिया था आखिर कवि ने अपनी काव्‍य-हुण्‍डी महाराज मान को ही लिख भेजी। उसकी अंतिम पक्तिंयां इस प्रकार थी-हुण्‍डी एक तुम पर कीन्‍हीं हैं हजार की सो, कविन को राखे मान साह जोग देनी हैं।। पहुँचे परिमान भानुवंश के सुजान मान, रोक गिन देनी जस लेखे लिख लेनी हैं।। उस काव्‍य-प्रेमी राजा ने ‘हुण्‍डी’ के रुपये तुरन्‍त बनिये को भिजवा दिये और कवि को समुचित आदर के साथ लिख भेजा-
इतै हम महाराज हैं उतै आप कविराज,
हुण्‍डी लिखि हजार की, नैकु न आई लाज।।वे नरेश अनेक भाषाओं, यथा संस्‍कृत, प्राकृत, फारसी, तुर्की ब्रज भाषा, गुजराती, पश्तो, बंगाली आदि के जानकार थे। इनका कोई ग्रंथ नहीं मिलता, स्‍फुट छन्‍द ही मिलते हैं। इनके शासन काल में ‘मान चरित्र’ नामक काव्‍य-ग्रंथ लिखा गया। दीवान देवी दास ने राजनीति पर ग्रंथ लिखा- दादू पंथ के प्रवर्तक कवि दादू दयाल और उनके शिष्‍य एवं प्रसिद्ध कवि सुदंरदासजी ने इनके राज्‍य में ही कालयापन किया।
महा पराक्रमी, बहुभाषी विज्ञ तथा गुण ग्राही नरेश मिर्जाराजा जयसिंह की गणना मुगलकाल के दक्ष राजनीतिज्ञ में की जाती हैं। महाकवि बिहारी उन्हीं के दरबारी कवि थे। जिनकी सुप्रसिद्ध रचना’ बिहारी सतसई’ से कौन साहित्‍य रसिक अपरिचित होगा, अर्थात जिस सरस कृति पर 54 टीकाऍं लिखि गई हों उससे कौन काव्‍य-प्रेमी अपरिचित रह सकता हैं। सतसई के रचयिता ने ही महाराजा जयसिंह को महलों की ‘भोग’तंद्रा’ से मुक्‍त किया था। उन्‍होने साहित्‍य के इस नत्‍नगर्भा कवि को एक एक दोहे पर स्‍वर्ण’मुद्रा प्रदान की थी। इन्‍हीं के आश्रित दूसरे महान कवि कुलपति मिश्र थे जो महाराजा के दक्षिण-युद्धों में उनके साथ गये थे और उन्‍होने शिवाजी तथा महाराजा की घटनाओं को उल्‍लेख ‘शिवा की बार’ नामक काव्‍य’ ग्रंथ में किया था।
जयपुर के निर्माता नरेश महाराजा सवाई जयसिंह संस्‍कृत, फारसी तथा हिन्दी के उद्भट विद्वान थे । भारतीय ज्योतिषशास्त्र का उद्वार उन्‍होंने देश की वैसी ही सेवा की जैसी पोप ग्रेग्ररी द्वारा कलेण्‍डर सुधार से यूरोप की हुई । भारत के प्रमुख नगरों में वेघशालाओं की स्‍थापना इन्‍हीं की महान प्रतिभा का फल हैं। इन्होंने ‘जीज मुहम्मदशाही‘ नामक नाम से फारसी तथा हिन्‍दी में उत्‍क्रष्‍ट ज्‍यौतिषग्रन्‍थ की रचना की। इनके आश्रित कवियों में श्रीकृष्‍ण भट्ट ‘ कलानिधि’ का नाम उल्‍लेखनीय हैं, जिन्हें ये बूँदी नरेश से याचना करके लाये थे। इन्होंने ‘ईश्‍वर विलास महाकाव्‍यम् वृत मुक्तावली’ अलंकार कलानिधि’ साभरियुद्ध’ विदग्ध माधव माधुरी’ ‘जाजउ रासौ आदि काव्‍य शास्‍त्रीय ग्रंथों का प्रणयन किया।
महाराज माधवसिंह(प्रथम) के समय ब्रजपाल तथा रामपाल नामक दो प्रसिद्ध कवि जयपुर आकर रहे। सुकवि द्वारिकानाथ तैलंग भट्ट ने उनके आश्रय में अनेक ग्रंथ लिखे। शिवसहायदास तथ जगदीश भट्ट ने भी कई ग्रंथों की रचना की। इनके समय में ब्रजपाल भट्ट द्वारा महाभारत का हिन्‍दी अनुवाद किया गया।
जयपुर राजवंश के महाराजा सवाई प्रताप सिंह अपनी प्रखर काव्‍य प्रतिभा के कारण ब्रजभाषा के उत्‍कृष्‍ट कवियों में गिने जाते थे। इनकी कविता अत्‍यन्‍त सरस ह्रदयग्राही तथा कलापूर्ण थी। पुरोहित हरिनारायणजी के ब्रजनिधि ग्रंथावली के नाम से महाराजा के समस्‍त प्राप्‍य ग्रंथों का योग्‍यतापूर्वक सम्‍पादन करवाकर, नागरी प्रचारिणी सभा, बनारस द्वारा प्रकाशन करवाया। महाराजा की जयपुरी भाषा में रची गई कविताऍं अत्‍यन्‍त मनोहर हैं – भगवान गोविन्‍ददेवजी को दिया गया एक उलाहना दृष्‍टव्‍य हैं-
ग्‍वालीड़ा थे कांई जाणो पीड़ पराई
हाथ लकुटिया काँधें कमलिया बन-बन धेनु चराई।।
प्रतापसिंह कृत रचानाओं में प्रीतिलता, स्‍नेह संग्राम, फागरंग, प्रेम प्रकाश, मुरली बिहार, सुहागरैनी, रंगचौपड़, प्रीतिपचीसी, प्रगम पंथ, बृज शृंगार बृजनिधि मुक्‍तावली, बृजनिधि-पद संग्रह आदि मुख्‍य हैं। ‘ब्रजनिधि’ महाराजा प्रतापसिंह केवल कवि ही नहीं थे, वे ज्ञान के पुजारी और कवियों का आदर करने वाले थे। इनके प्रोत्‍साहन से वेधक का ‘प्रताप- सागर’ ज्योतिष का ‘ प्रताप मार्तण्‍ड’ धर्मशास्‍त्र को प्रतापार्क’ नामक कई ग्रंथों का प्रणयन हुआ। संगीत सम्‍बन्‍धी रचानाओं में –‘ राधा गोविन्‍द संगीत सार, राम रत्नाकर, स्‍वर-सागर, ब्रज प्रकाश की रचना इन्‍हीं के समय में हुई । फारसी के ‘दीवाने हाफ़िज़’ तथा ‘ आईने अकबरी‘ का अनुवाद भी इनकी आज्ञा से हुआ। गणपति जी ‘भारत’/गुसांई रसपुजजी/चतुर शिरोमणि/रस राज़ी आदि कवियों ने इनके राज्‍य की शोभा बढ़ाई। महाराजा ने जिन हज़ारों का संग्रह करवाया इनमें प्रताप और हजारा’/प्रताप सिंगार हजारा मुख्‍य हैं।
महाराजा सवाई जगत सिंह के राज्‍याश्रय में हिन्‍दी के श्रेष्‍ठ महाकवि ‘पद्माकर’ भट्ट हुए- जिन्हें राज्‍य से सब प्रकार सम्‍मान एवं आदर प्राप्‍त हुआ। इनके आश्रय में ही मंडन भट्ट ने अपनी रचनात्‍मक प्रतिभा का परिचय अनेक काव्‍य ग्रन्‍‍थ लिखकर दिया।

महाराजा समाई राम सिंह अद्भुत प्रतिभा सम्‍पन्‍न, विलक्षण, बुद्धि सम्‍पन्‍न एवं प्रजावत्‍सल नरेश थे। इनके समय में दुलीचन्‍द कान्‍य कुब्‍ज ने महाभारत का हिन्‍दी अनुवाद किया। लोकनाथ चोबे इनके समय में प्रसिद्ध कवि थे।
महाराजा सवाई माधवसिंह (द्वितीय) के समय कवियों और लेखकों में श्री भूर सिंह शेखावत, पुरोहित सर गोपीनाथ, पुरोहित राम प्रताप, पंडित चन्‍द्रधरशर्मा गुलेरी, राम नाथ रत्नू, जैन वैद्य – समर्थ दान आदि मुख्‍य हैं।
जयपुर राजवंश के अंतिम एवं ख्‍यातिनामा नरेश, जिनकी प्रजातन्‍त्र में दृढ़ आस्‍था और भक्ति थी, महाराजा मानसिंह के समय में अनेक कवि और लेखक राज्‍य की शोभा अभिवृद्धि करते रहे, जिसमें अधिकांश काल के क्रूर हाथों से हमारे बीच न रहे । पुरोहित हरिनारायणजी, रावबहादुर नरेन्‍द्रसिंह ठाकुर कल्याण सिंह शेखावत, महामहोपाध्‍याय श्री गिरधर शर्मा चतुर्वेदी, साहित्‍याचार्य, मथुरानाथ भट्ट, पुरोहित प्रतापनाराणण कविरत्‍न, पंडित मदनमोहन शर्मा एवं आशुकवि कवि भूषण हरि शास्त्री आदि प्रमुख हैं।
जयपुर राजवंश प्राचीनकाल से ही कलाकारों और कवियों का आश्रयदाता रहा हैं। विभिन्‍न महाराजाओं के प्रयत्‍नों से 35 कवीश्वरों और अनेक चारण कवियों के परिवारों ने जयपुर को अपना स्‍थायी आवास बनाया था।
राज्‍य के राजवंश और आश्रय के पलने वाले कवियों और उनकी रचानाओं की संख्या हज़ारों में हैं। किन्‍तु विस्‍तार भय से बचने और संक्षेप में प्रवृति गत मूल्यांकन के रूप में कुछ उदाहरण यहां उदघृत किये जा रहे हैं।
स्‍व-वंश वर्णन
कुलपति कविपति के तनय गोविन्‍द राम सुजान
जिनके सुत अति बुद्वियुत, सदासुखहि, मतिमान।। (-कुलतिमिश्र)
आश्रयदाता प्रशस्ति
‘बैरी दूःख दै के, जय जूथ लेके।
आयो राम राजा के मुसाहिब बसंत हैं।। (- नंदलाल)

शुक्रवार, अगस्त 07, 2009

रक्षा बंधन गीत

मन में मधु थाल में अक्षत, माथे पर रोली चन्‍दन
कच्‍चे धागे में बांधा है, बहिनों ने पक्‍का बन्‍धन
राखी तो प्‍यारा बंधन हैं, भाई जिसे समझता हैं
राखी तो रिश्‍तों का चंदन, जग में सदा महकता हैं
राखी का कच्‍चा धागा तो, तोड़े से ना टूटेगा
स्‍नेह प्रेम का यह अपनापन, मरने पर ही छूटेगा
रक्षा बंधन के धागे को, भैया कभी लजाओ मत
घर में अपनी बहनों के आँखों में आंसू लाओ मत
सोने की हो या चाँदी की, या धागों की हो राखी
राखी ममता, राखी समता, संबंधों की यह राखी
राखी तो दृढ़ता रिश्‍तों की, धड़कन हैं या स्‍पंदन
कच्‍चे धागे में बांधा है, बहिनों ने पक्‍का बन्‍धन

गाँवों में शहरों में पहल, रिश्‍तों की पावन ज्‍योति थी
हर घर की मां बहने-बेटी, अपनी जैसी होती थी
अब अबला का घर से बाहर, ज्‍यों ही पाँव निकलता हैं
भूकी नंगी आंखों में लालच का लहू टपकता हैं
एक हाथ को आज यहां पर, दूजे को विश्‍वास को नहीं
खुद अपना ही हो जाये कब, बेगाना आभास नहीं
सम्‍मुख बंधी अबोध बहिन को, धूर्त पड़ोसी कहता हैं
मेरे सामने वाली खिड़की में, इक चाँद का टुकड़ा रहता हैं
उसी चाँद को बहिन मानकर, करलो उसका अभिनंदन
कच्‍चे धागे में बांधा है, बहिनों ने पक्‍का बन्‍धन

राखी का मतलब रक्षा हैं, तो वृक्षों के बाधों तुम
वरना जंगल हो जायेगें, कल तक इस धरती से गुम
मूक परिंदों को सहलाओं, रक्षा के इन धागों से
आखेटक को दूर भगाओं, खग, मृग, वन के बाधों से
ऐसी राखी रचो बंधुवर, खड़ा हिमालय मुस्‍काए
गंगोत्री पर बाधों राखी, गंगा गद-गद हो जाये
संकेतों में बांधो राखी, झीलों और तालाबों को
सहलाओं धरती माता के, दर्द भरे इन घाओं को
चौदह बरस विपिन में राखी, रहे बाँधते रघुनंदन
कच्‍चे धागे में बांधा है, बहिनों ने पक्‍का बन्‍धन

मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे सब, आपस में बाँधे राखी
धन-कुबेर, मुफलिस को बॉंधे, भोली जनता को खाकी
आओ हम सब मिलकर बाँधे, लोकतंत्र को अब राखी
सैनिक सबसे पहले जाकर, सरहद को बाँधे राखी
विक्रेता क्रेता को बॉंधे, वैद्य हकीम बीमारों को
यारों राखी बांध सँभालो इन दुर्बल सरकारों को
पण्डित मुल्‍ले मन से बाँधे, अल्लाह और भगवान को
संविधान को नेता बाँधे, मंत्री निज ईमान को
निश्चित ही राखी रोकेगी, मां बहिनों का यह क्रंदन
कच्‍चे धागे में बांधा है, बहिनों ने पक्‍का बन्‍धन
किशोर पारीक " किशोर"

महाराणा प्रताप के सम्‍मान में

महाराणा प्रताप के सम्‍मान में
शब्‍दों में सीमित हैं भाषा, कैसे में गुणगान करुँ
दुनियां भर में चर्चा हैं महाराणा के अभियान की
जननी जन्‍मभूमि के खातिर, हँसते-हँसते कष्‍ट सहे
स्वाभिमान चेतक से तुलना, रामभक्‍त हनुमान की
हल्दिघाटी की माटी तो, हर माथे का चन्‍दन हैं
गूंज रही कण-कण में गाथा, वीरों के बलिदान की

गौरवमय, गरिमामय, मित्रों, हमको हैं इतिहास मिला 
 भारत मां की गोदी पायी,  तो रज राजस्‍थान की
किशोर पारीक" किशोर" कवित्त

गुरुवार, अगस्त 06, 2009

राम के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह

राम हमारे घट घट वासी, ह्रदय निवासिनी सीता है
पूरा देश खून के आंसू धर्म द्राहियों पीता है
राम हमारे घट घट वासी, ह्रदय निवासिनी सीता है

वाल्मीकि तुलसी क्‍या कल्‍पित, राम कथा क्‍या झूठी हैं
सिया राम मय सब जग जानी, केसी उक्‍ति अनूठी है
जन श्रद्वा पर चेट लगाते, लगता किस्‍मत रूठी है
कान तुम्‍हारे क्‍या बहरे है, या आँखें भी क्‍या फूटी है
क्यों अमरीका की उँगली से, कठपुतली बन नाच रहे
राम सेतु को रामायण को, क्यों छेनी से टाँच रहे
कल को तो तुम मां गंगा, की भी पहचान बखानोगे
और हिमालय के अस्तित्व, को ना मानोगे
राम बिना हर काया समझें, जैसे मटका रीता है
राम हमारे घट घट वासी, ह्रदय निवासिनी सीता है
नल नील थे दो अभियन्‍ता, अदभुद सेतु बनाया था
एक एक पत्‍थर को चुनकर, पानी पर तैराया था
राम सेतु ने ही रधुवर को, सीता से मिलवाया था
देत्‍याकार सुनामी लहरों से, भी मुल्‍क बचाया था
शार्टकट पर चलकर ही हम, नई मुसीबत पाते है
ओजोन परत में छेद, पिघलते ग्‍लेशियर चिल्‍लाते हैं
रामसेतु को तोडोगे तो, यहां प्रलय मच जायेगी
मौसम तो पहले से रूठा, नई आफ़तें आयेगी
ग्रन्थ हमारे सत्‍य सनातन, वेद उपनिषद गीता है
राम हमारे घट घट वासी, ह्रदय निवासिनी सीता है

राम हृदय में मुसकाते हैं, धड़कन में बसते सबके
धर्म जाति मजहब से हटकर, चाहे हो कितने तबक़े
राम हमारी श्रद्धा ममता, करुणा के अदभुद धाम है
मन से रावण जो निकल तो, सबके मन में राम हैं
जल में थल में, नभ मण्ड़ल में, राम दिखाई देते है
तन में त्रण में जड़ संगम में राम गवाही देते हे
नीर तीर में और समीर में, राम ही राम समाये है
ऐसी काई ठोर नहीं हैं, जहाँ न रामजी छाये हैं
नाम राम का लेकर मरता, राम राम कर जीता
राम हमारे घट घट वासी, ह्रदय निवासिनी सीता है
गांधी तुमने देखा सपना, रामजी का राज हो
धरम मार्ग पर जो चलता हो, उसके सर पर ताज हौ
दशकन्‍दर कुरसी पर बैठो, स्‍थिति दुखदाई है
सिसक रही मानवता बापू, धौर निराश छाई है
कोई कहता राम नहीं है, कोई न्‍यायालय जाता
मरण समाधि पर हे बापू, झूठी क़समें है खाता
पूरे जीवन भर तो तुमने, रघुपति राघव राम कहा
मरते मरते बापू तेरे, मुख पर राजा राम रहा
अपने हाथों इतिहासों में इनने दिया पलीता है
राम हमारे घट घट वासी, ह्रदय निवासिनी सीता है
सत्‍ता के मद में अन्‍धे हो, रोम रोम रटते रहते
रोम रोम में राम हमारे, उसको तुम मिथ्या कहते
अपने पुरखों की पज्ञा को, मत तुम गाली दो भाई
खंडित करो न राम चरित , मानस के दोहे चौपाई
तुमने यह अपराध किया, अधर्म ध्वजा जो रोपी है
सबके दिल में घाव किये हैं, निदां के आरोपी है
अब राम राम रट भी लोगे , तो घाव नहीं भर पायेगें
जो तीर हाथ से छूट गये, वो वापस कैसे आयेगें
गज फुट, इंच तुम्‍हारे झूठे, झूठा डोरी फीता है
राम हमारे घट घट वासी, ह्रदय निवासिनी सीता है
पूरा देश के खून के आंसू धर्म द्रोहियों पीता है
राम हमारे घट घट वासी, ह्रदय निवासिनी सीता है
किशोर पारीक " किशोर" 

भ्रष्‍टाचार पर गीत

उनके घर फूलों की बरसा‍ मेरे घर में बिखरे खार


उनके घर फूलों की बरसा‍ मेरे घर में बिखरे खार
मेरा बेली तो ईश्‍वर है, उनका बेली भ्रष्‍टाचार
लोकतंत्र से तंत्र लुप्‍त है, खुशबू के बिन गजरे हों
हर दफ्तर का मंजर, लाशों पर गद्दों की नजरें हों
निकल खजाने से रुपया, जब नीचे लुढ़का आता है
घिसते-घिसते केवल पैसा, पन्‍द्रह ही रह जाता है
समरथ टुकड़े काट-काट कर, रुपये को ही खाता है
जिसके लिये चली थी मुद्रा, वह रोता रह जाता है
चमचों और दलालों का तो, दृढतम यही सहारा है
यही जिलाता दुर्जनता को, सज्‍जनता को मोरा है
पन्द्रह पैसे का विकास ही, बस जनता का तो आधार
मेरा बेली तो ईश्‍वर है, उनका बेली भ्रष्‍टाचार

हमने चुनकर संसद भेजा, प्रश्नों हेतु घन लेते
दीमक बन कर चाट रहे हैं, भारत को ये सब नेते
चारा बोफर्स और यूरिया, संग दलाली खाते हैं
बड़े-बड़े मंचों पर फिर, गांधी के गीत सुनाते हैं
गठबंधन-ढगबंधन मुझको, एक दिखाई देता है
जिसको देखो बहती गंगा में, अपना कर धोता है
घोटालों की लिस्‍ट देखिये, मीलों लम्‍बी होती है
नैतिकता सच्‍चाई भी तो, कदम-कदम पर रोती है
बड़े-बड़े मन्‍त्री चलते है, इसके संकेतों अनुसार
मेरा बेली तो ईश्‍वर है, उनका बेली भ्रष्‍टाचार
ये तोपों में बसा हुवा है, गोली है बंदूकों में
आता कभी ब्रीफकेसों में, बस जाता संदूक़ों में
यह तबादलों का प्रिय हेतु, दृढ़ आधार नियुक्ति का
यदी सलाख़ों पीछे लाता, यही आधार विमुक्ति का
बिगड़े काम बनाता सबके, ऐसा है यारों का यार
बाबू,,लाला, दादा, अफसर, सबका है रुचिकर आहार
कोई टेबल तले पकड़ता, नोटों की यह थैली है
गंगोत्री पर ही मां गंगा, कितनी हो गयी मेली है
बड़े-बड़े अफसर धकेलते, इसके बूते पर सरकार
मेरा बेली तो ईश्‍वर है, उनका बेली भ्रष्‍टाचार
भ्रष्‍टाचार नहीं है केवल, रिश्‍वत का लेना देना
नकली सौदे और मिलावट, पैसे लेकर कम देना
झूँठ बोलकर टैक्स बचाते, कितने भ्रष्‍टाचारी है
अपने भारत से गद्दारी, करते ये व्‍यापारी हैं
बगैर दाम के काम नहीं, करना जिनका हूसूल हैं
दसवीं पास खोल कर बैठे, बड़े-बड़े स्‍कूल हैं
हर वोटर पर आँख गड़ाये, लोकतंत्र के ये स्‍वामी
मेच-फिक्‍सिंग और हवाला, बेशर्मी शरणम गच्‍छामी
नारायण की क्षमता सीमित, इनका कोई अन्‍त न पार
मेरा बेली तो ईश्‍वर है, उनका बेली भ्रष्‍टाचार
भ्रष्ट राष्ट्रों में गणना, भारत की जब-जब होती है
भगतसिंह आजाद पटेल की ,रूह बिलख कर रोती है
भ्रष्टाचार सहोगे कब तक, ध्रष्‍ट्रराष्‍ट्र से बन अंधे
कब तक आजादी की अर्थी को, देने हमको कंधे
न्यायपालिका और मीडिया, ध्यान तनिक इस और धरें
और मुखौटा नोच इन्हें, बाज़ारों में ही नग्‍न करे
तरुणाई को न्‍योता देता, इसकी जड़ पर करो प्रहार
मेरा बेली तो ईश्‍वर है, उनका बेली भ्रष्‍टाचार
उनके घर फूलों की बरसा‍ मेरे घर में बिखरे खार

किशोर पारीक"किशोर"

पर्यावरण गीत

हर बेटे से हर बेटी से, मेरा एक सवाल है
हर बेटे से हर बेटी से, मेरा एक सवाल है
इस मिट्टी का कर्ज चुकाये, वों ही मां का लाल है
क़ुदरत से जो छेड़ करेगा, वह कैसे बच पायेगा
अपने ही पग मार कुल्हाड़ी, अपनी मोत बुलायेगा
छेद हुवा ओजोन परत में, वह जमीन को भारी है
अंबर से भू पर तेजाबी, बरखा की तैयारी है
कोई गन्दे नालों से, मां गंगा दूषित करता है
चिमनी के धुएं से कोई, गगन कलुषित करता है
घास फूस के बिना चोपाये भूके ही मर जाते है
हेय देखिये पशु का चारा, नेताजी चर जाते है
अरबों रुपये डकार गये पर एक न बांका बाल है
वापस रकम निकाले कोई, वो ही मां का लाल है

श्‍याम चिरैया, सोन चिरैया, ना गौरैया गाती है
अमराई सूनी उदास है, कोयल ना इठलाती है
तिनका तिनका चुनकर पंछी बेमन नीड़ बनाते है
फूलों के बिन तितली मधुकर, सब गुमसुम हो जाते हैं
मन मोहक झरने केवल अब, चित्रों में बच पाये हैं
मानव ने स्‍वारथ के खातिर, जंगल भी कटवाये हैं
नदिया कूप बावड़ी सूने, पानी गया पतालों में
मीलों से जल लाती बधू के चरण भरे है छालों में
इस पीड़ा को कोइ ना जाने, यही किशोर मलाल है
आँखें खोलेगा जो जग की, सोई मां का लाल है
अमरीका जैसे देशों ने, सृष्टि को बरबाद किया
अपना कचरा भारत जैसे देशों को निर्यात किया
मौसम हमसे रूठ गये हैं ताममान भी ज्‍यादा है
और सुनामी बाढ़ें आने को, कितनी आमादा है
भुज अंजार भुलायें कैसे आता याद कवास है
हर पग पर बिखरा सा, देखो अब तक जहां विनाश

आयेगें भुकम्प ज़लज़ले, धरा बिचारी a
सरकारी सत्‍ता तो बस, रिक्‍टर पैमाने नॉंपेगीं
आये दिन अति वृष्टि कहीं तो, पड़ता कहीं अकाल है
इस मिट्टी का कर्ज चुकाये, वों ही मां का लाल है
पेड़ झाडियां ढूंढ बेलडी, गीले सूखे सब कटते
अपने अपने रूतबे माफिक, उपर तक हिस्से बँटते
कानन का आनन मुरझाया, ना चुग्‍गा है ना पानी

गिद्ध हो गया गुम, बहुत सी नसलें भी है गुम जानी
भूल गये तुम खेजडली की अदभुद सी कुरबानी को
शीश कटा कर पेड़ बचाया, ऐसी अदभुद रानी को
मूक जानवर किससे बोलें अपने मन की लाचारी
सलमान सरीखे भोले चेहरे उन पर पड़तें है भारी
कहां गई गोडावन अपनी, केहरी हुवा हलाल है
इस संकट से हमें बचाए कोई मां को लाल है

किशोर पारीक " किशोर" 

बुधवार, अगस्त 05, 2009

बात पते की यही हुजूर

बात पते की यही हुजूर
खुरापात से रहना दूर
दिया खुदा ने उसे कबूल
उसको ये ही था मंजूर
नहीं निगाह में उसके फर्क
राजा हो या हो मजदूर
जिन्‍हें हुस्न पर होता नाज
वो अक्‍सर होते मगरूर
खोयेगा जो वक्‍त फिजूल
सपने होंगे चकनाचूर
चलते ही रहना दिन-रात
मंजिल अपनी कोसों दूर
सबर सुकूं की रोटी चार
बरसाती चेहरे पर नूर
बोई फसल वही तू काट
जीवन का ये ही दस्‍तूर
दुनियां फ़ानी समझ ‘किशोर’
सब कुछ होना हैं काफूर

किशोर पारीक "किशोर"

सोमवार, अगस्त 03, 2009

अपनी चादर तान सखे

चिंतन सबका यही बचा हैं आम सखे
कैसे भी हों, अपनी झोली में दाम सखे
नैतिकता, मर्यादा, सच्‍चाई के गोली मारो
पैसा हैं तो जग में होता, नाम सखे
लिये फिर रहा रात, हाथ में जो खंजर
सुबह देखिये उसके, मुख पर राम सखे
बैग भरी डिगरियां, आँख में आंसू हैं
जिन हाथों को नहीं मिल रहा काम सखे
येन केन प्रकारेण जिसने पाली कुर्सी
गधे खा रहे उसके घर बादाम सखे
बेबस मां बापों की लाचारी के कारण
श्रंगार किया महफिल में थामे जाम सखे
स्‍वप्‍न पूर्ण कैसे होंगे गांधी बाबा के
सिंहासन पर क़ाबिज़ हैं, सुखराम सखे
नहीं समय सुनने का, किशोर तेरी तक़रीरें
तू भी जाकर अपनी चादर तान सखे
किशोर पारीक "किशोर" ग़ज़ल

तुलसी जयंती पर

जिनके पदचिह्नों पर चलले, ऐसे जन निष्‍काम कहां है
मर्यादा कायम रहती हो, जग में ऐसे धाम कहां है
चारों और दशानन दिखते, पीड़ित हैं अनेक सीताऐं
तुलसी होते तो बतलाते, अंतर्यामी राम कहां है।
संबंधों में पड़ी दरारें, उर अन्‍तर में बढ़ती खाई
पवन पुत्र से सेवक नाहिं, भरत-लखन से सरिस न भाई
अतिचारों से या दहेज से, भ्रूण हनन से कन्‍या पीड़ित
यही इब्तिदा है तो बाबा, फिर इसका अंजाम कहा है
तुलसी होते तो बतलाते, अंतर्यामी राम कहां है।
दौड़ रही है स्‍वर्ण मृगों के, सारी दुनियां पीछे पीछे
पापों की पोथी है उपर, सच की दबी हुई है नीचे
लाद पोटली लाचारी की, भागे फिरते इधर उधर
बदहवास से इन लोगों के, जीवन में विश्राम कहां है
तुलसी होते तो बतलाते, अंतर्यामी राम कहां है।
चरित पतन की सभी विधाऍं, नई पीढियां सीख रही है
पहले से भी अधिक भयानक, सुरसाऍं अब दीख रही है
वीणाओं के स्‍वर खंडित हैं, कोलाहल ही कोलाहल है
मिले सुकून कभी थोड़ा सा, वह राका निशा याम कहां है
तुलसी होते तो बतलाते, अंतर्यामी राम कहां है।
Kishore Pareek " Kishore"
गीत

शुक्रवार, जुलाई 17, 2009

बिहारीशरण पारीक महाकवि बिहारी पुरस्कार से सम्मानित



पारीक महाकवि बिहारी पुरस्कार से सम्मानित

जयपुर, : सूचना एवं जनसंपर्क निदेशक डॉ. अमर सिंह राठौड़ की अध्यक्षता एवं शुक्र संप्रदाय पीठाधीश्वर अलबेली माधुरीशरणजी महाराज, न्यायमूर्ति कविवर शिव कुमार शर्मा के वरिष्ठ आतिथ्य में बृहस्पतिवार को स्थानीय पिंकसिटी प्रेस क्लब में मित्र परिषद जयपुर द्वारा प्रवर्तित कविवर बिहारी शरण पारीक अमृतमहोत्सव एवं महाकवि बिहारी पुरस्कार समारोह का आयोजन किया गया। कार्यक्रम में कविवर बिहारी शरण पारीक को महाकवि बिहारी पुरस्कार से कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे सूचना एवं जनसंपर्क निदेशक डॉ. अमर सिंह राठौड़ ने स्मृति चिह्न प्रदान किया। इस मौके पर न्यायमूर्ति कविवर शिवकुमार शर्मा ने उन्हें साफा पहनाया तथा विशिष्ट अतिथि शुक सम्प्रदाय पीठाधीश्वर अलबेली माधुरी शरण महाराज द्वारा शाल ओढ़ाकर तथा अमृत महोत्सव समिति के अध्यक्ष बुद्धिप्रकाश पारीक ने श्रीफल भेंट कर और मित्र परिषद के अध्यक्ष कल्याण सिंह राजावत ने पुरस्कार राशि देकर सम्मानित किया। प्रशस्ति वाचन मित्र परिषद के सचिव डॉ. रमाशंकर शर्मा द्वारा किया गया। इससे पूर्व अतिथियों द्वारा मा सरस्वती की प्रतिमा पर दीप प्रज्ज्वलित कर माल्यार्पण किया। कार्यक्रम में बृजभाषा अकादमी के पूर्व अध्यक्ष एवं वरिष्ठ साहित्यकार गोपाल प्रसाद मुद्गल ने सरस्वती की वंदना प्रस्तुत की। इस अवसर पर कदंब साहित्य शोध संस्थान, कामा के सचिव विठ्ठल पारीक ने बिहारीशरण पारीक को बृज भाषा के काव्यशिल्पि की संज्ञा दी वहीं ओज एवं वीर रस के कवि उमेश उत्साही ने कविवर बिहारीशरण पारीक की कविताओं की महत्ता का गुणगान किया।

गुरुवार, जुलाई 16, 2009

जयपुर के साहित्‍य शिल्पि

साहित्‍य और कला की दृष्टि पांडित्‍य और शिल्‍प की दृष्टि से अन्‍तपुरों को रति और काव्‍य-रीति की दृष्टि से- उदारचेता और दानी राजाओं की दृष्टि से- कलाकारों और भक्‍तों की दृष्टि से जिस नगरी ने भारतवर्ष में अपना अन्‍यतम स्‍थान बनाया उसे सवाई जयसिंह, जयपुर नरेश न बसाया था। ज्योतिष और, कला-कोविदो, पंडितों, गुणीजनों से इस प्रकार शोभा अभिमण्डित किया था कि जयपुर ‘ द्वितीय काशी’ के नाम से विख्‍यात हो गया। एक समय था जब पांडित्‍य और शास्‍त्रार्थ, प्रस्‍तुति और पुष्टि, खण्‍डन और मण्‍डन, काव्‍य और शिल्‍प जैसे विषयों पर राजा से लेकर साधारण प्रजाजनों तक गम्‍भीर चिन्‍तन को आयाम दिया जाता था।
मुग़ल साम्राज जब अपने वैभव के चरम शिखर पर था और जबसे उसने पतन की और प्रयाण आरंभ किया दानों ही स्थितियों में जयपुर आमेर के कच्‍छवाह नरेशों ने कवियों, कलाकारों, गुणीजनों को अपने यहां राज्‍याश्रय दिया । उनके नाज नखरे उठाये और लेखनी के कारीगरों से अमर हो उठे। जिनकी पार्थिव देहयष्टि चित्रों से रक्षित रही या कवलित हुई पर ‘ बस कहिबे की बातें रह जायेगी-1’ और ये बातें आज भी उनके आश्रित कवियों के कविकर्म में सुरक्षित हैं।
वैसे तो सम्‍पूर्ण राजस्‍थान के राजा ही परम उदार और कवियों गुणियों का आदर करने वाले हुए हैं, परन्‍तु जयपुर को राजवंश इस दृष्टि से बहुत अग्रणी रहा हैं।
महाराजा पृथ्‍वीराज, महाराजा साँगा के समकालीन और नाथ मतानुयायी थे। इनके शासनकाल में श्रीकृष्ण दास ’पयहारी’ वैष्‍णव सम्‍प्रदाय के प्रसिद्ध कवि तथा संत हुए हैं। इनका उल्‍लेख ‘अष्‍टछाप’ और उनके शिष्‍य ‘भक्‍तमाल’ के रचयिता नाभादास प्रसिद्ध संत कवियों में गिने जाते हैं।
महाराजा मानसिंह आमेर राज्‍य तथा राजवंश को अखिल भारतीय महत्‍व प्रदान करने वाल, कुशवाह कुल भास्‍कर, वीर शिरोमणि, महाराजा मान साहित्‍य प्रेमी, रसज्ञ तथा गुणग्राहक थे। उनकी वीरता के लिये ये पक्तिंयां प्रसिद्ध हैं ।
जननी जणे तो ऐसा जण, जे डो़ मार मरद्ध, समंदर खाडो़ पाखलियो- काबुल घाती हद्द।
और कविगण पर प्रसन्‍न होने वाले उस दानी म‍हीप ने कवि हरनाथ की इस रचना पर एक लाख रुपये का नकद पुरस्‍कार दिया था ।
बलि बोई कीरति-लता, कर्ण करी द्वै पात। सींची मान महीप ने, जब देखी कुम्हिलात ।।
उनके बारे में यह कथ्‍य भी बहुत प्रसिद्ध हैं कि किसी कवि को एक बनिये ने एक हजार रुपये के लिये बहुत तंग कर लिया था आखिर कवि ने अपनी काव्‍य-हुण्‍डी महाराज मान को ही लिख भेजी। उसकी अंतिम पक्तिंयां इस प्रकार थी-
हुण्‍डी एक तुम पर कीन्‍हीं हैं हजार की सो, कविन को राखे मान साह जोग देनी हैं।। पहुँचे परिमान भानुवंश के सुजान मान, रोक गिन देनी जस लेखे लिख लेनी हैं।। उस काव्‍य-प्रेमी राजा ने ‘हुण्‍डी’ के रुपये तुरन्‍त बनिये को भिजवा दिये और कवि को समुचित आदर के साथ लिख भेजा-
इतै हम महाराज हैं उतै आप कविराज, हुण्‍डी लिखि हजार की, नैकु न आई लाज।।
वे नरेश अनेक भाषाओं, यथा संस्‍कृत, प्राकृत, फारसी

चिकित्‍सालयों पर व्‍यंग्‍य ग़जल

टूटी दाईं टाँग लगादी, रॉड भले ने बॉंई में
किसको फुरसत सभी लगे हैं, अंधी मुफ्त कमाई में
पेट दर्द था कल से उसका, दिखलाने भीखू आया
पता लगा गुर्दा दे आया, आते वक्‍त विदाई में
चीर पेट छोडी हैं अन्‍दर, कैंची पट्टी सर्जन ने
दोष ढूँढ़ते आप भला क्‍यों, मिस्‍टर मुन्‍ना भाई में
रहे सिसकते दुर्घटना में, घायल उनको रोते हैं
नैन लड़ाते खड़े चिकित्‍सक, सिस्‍टर से तनहाई में
बीमारी गहरी या हल्की, अस्‍पताल में मत जाना
भले कूदना पड़े तुम्हें तो, कुए बावड़ी खाई में

मन्‍दी का भी दौर न होगा, इन दोनों के धन्‍धो में
नजर न आता मुझको अन्‍तर, सर्जन और कसाई में
लालच देकर खून निकाला, मासूमों को बहलाकर
रक्‍त पिपासु नरपिचास ये, डूबे सब बेहआई में
समझा जिनको जीवन रक्षक, भक्षक वे प्राणों के निकले
वो किशोर करते अयासी, नकली लिखि दवाई में

समलेंगिकता पर गीत

समलेंगिकता पर गीतरिश्‍तों के पावन बन्‍धन में किसने दाग लगाया देखो,
रिश्‍तों के पावन बंधन , में किसने दाग लगाया देखो

मर्यादा की फुलवारी में, किसने खार उगाया देखो
आग लगी थी जगंल जगंल, वो बस्‍ती में धुस आयी है
बरबादी की लें सोगातें, दानवता भी संगलाई है
कीचड में अवगाहन करके, गंगाजल ठुकराया देखो
रिश्‍तों के पावन बन्‍धन, में किसने दाग लगाया देखो
पशुओं में भी जो ना देखा, वह इंसानो ने कर डाला
कुदरत की अनदेखी करके, आपस में डाली है माला
शर्म हया को निर्वासित कर, किसने जाल बिछाया देखो
रिश्‍तों के पावन बन्‍धन, में किसने दाग लगाया देखो
इतिहासों को चिन्‍हीत करके, अपवादों को क्‍यों रोते हो
नादानों नवपीढी में तुम, बिष की बेलें क्‍यों बोते हो
मजहब को अपमानित करके, किसने पाप रचाया देखो
रिश्‍तों के पावन बन्‍धन, में किसने दाग लगाया देखो
विधि की मोहर लगाई उस पर, विकृत मन का पागलपन है
गलियों, चौराहों, चौबारों, सब पर इनका नंगापन है
नैतिकता को अपमानित कर, क्‍या षड्यन्त्र रचाया देखो
रिश्‍तों के पावन बंधन , में किसने दाग लगाया देखो
किशोर पारीक 'किशोर'

सोमवार, जुलाई 06, 2009

जून माह की काव्‍यगोष्‍ठी

मौन शंकर मौन चंण्‍डी देश में, हो रहे हावी शिखंडी देश में
काव्‍यालोक की मासिक काव्‍यगोष्‍ठी में चली कविता की अविराम
वजीर सदन आदर्श नगर, जयपुर में आयोजित काव्‍यालोक जयपुर की मासिक काव्‍यगोष्‍ठी में ढूढाडी के वरिष्‍ठ गीतकार बुद्विप्रकाश पारीक की अध्‍यक्षता में गुलाबी नगर के कवियों, गीतकारों ने देर रात तकअपने गीतों गजलों एवं दोहों की त्रिवेणी से जमकर रस बरसाया। संघर्षों के सुधी शायर एवं पूर्व मंत्री जोगेश्‍वर गर्ग के अशआरों ने खूब दाद पायी 'करें है याद भी गर तो सताने के लिये कोई, हमारा नाम लिखता है मिटाने के लिये कोई, तेरी महफिल से उठ कर आ गया उम्‍मीद ये लेकर, पीछे आ रहा होगा, मनाने के लिये कोई। और व्‍यवस्‍थाओं पर चोट करते हुए जोगेश्‍वर ने इस अंदाज में कहा 'मौन शंकर मौन चंण्‍डी देश में, हो रहे हावी शिखंडी देश में, है टिका आकाश इनके शिश पर, सोचते हैं कुछ घंमडी देश में। रागात्‍मकता के कवि आर सी शर्मा गोपाल ने ईमान धरम की अहमियत पर जोर डालते हुवे अपने दोहों में कहा कि 'सब कुछ है जिनके लिये धरम और ईमान, जीवन उनका कार्तिक सांसे है रमजान। और मंहगाई पर ' आम दिनों के खर्च ही चलना है दुश्‍वार, मुफलिस की तो मौत है, आये दिन त्‍योंहार। काव्‍यालोक के अध्‍यक्ष नन्‍दलाल सचदेव ने हाल ही दिवंगत वाचिक पंरम्‍परा के चार कवियों को श्रद्वाजंली अर्पित करते हुवे गीत पढा ' माना हो जायेगे इक दिन मंच से किरदार गुम, जिंदगी से हो ना पायेंगे कभी आधार गुम, रास्‍ते खेले बहुत आमद बढी रफतार भी, सर से होते जा रहे है, पेड छायादार गुम।
गोष्‍ठी का संचालन करते हुवे कवि किशोर पारीक 'किशोर' अपनी व्‍यंग्‍य रचना में फादर्स डे पर पीढीयों के दंश को ढूढाडी गज़ल ' रिश्‍ता होगा डेड पिताजी थे छो कोडै, बदल्‍यो ऐ टू जेड पिताजी थे छौ कोडै' में खुब वाह वाही लूटी। कलम के अनूठे चितेरे कवि मुकुट सक्‍सेना ने ' उसने पीछे से मेरी आखें हथेली से ढक्‍ी, इस तरह पर्दे रही, बेपर्दगी अच्‍छी लगी' से सब का ध्‍यान आकर्षित किया । कवि वैघ भगवान सहाय पारीक ने पाकिस्‍तान एवं अमेरिका की दोस्‍ती पर व्‍यंग्‍य गीत पढा ' पाला आज सपोला कल होगा बिकराल सपेरे विषधर मत पाल'
सदाकन्‍द पसंन्‍द शायर रजा शैदाई ने हुस्‍न के बदलते मिजाज मिजाज पर इशारा किया ' कोई काफर जब़ी शरमा रहा है, सितारों का पसीना आ रहा है' इलाही क्‍या जमाना आ रहा है, मिजाजे हुस्‍न बदला जा रहा है। शायर मनोज मित्‍तल केफ ने पूरी कायनात में इंसान की स्थिति पर अपने कता पढे ' कहूं किससे हाल ए हयात मैं, गमें जिन्‍दगी से सरहक हूं, जो फलक की आंख से गिर गया, मैं जमीं पर वही अश्‍क हूं। टोंक के गीतकार गोविन्‍द भारद्वाज ने अपने दोंहों में शहरों की और पलायन करते लोगों को वहां की बेहाली से सावचेती का बात अपने दोंहो में कही ' गांव छोडकर आ गये, क्‍यों शहरों की और, पता नहीं तुमको यहॉं कितने आदमखौर,। सिद्वहस्‍त वरिष्‍ठ कवि बिहारीशरण पारीक ने अपनी ब़जभाषा रचना ' लल्‍ली है कि लल्‍ला है ' को रोचक अदांज में पेश किया। कोष्‍ठी में गोपीनाथ गोपेश, चन्‍द्र पकाश चन्‍दर, गोविन्‍द मिश्र, सोहन प्रकाश सोहन, विशन लाल अनुज, चम्‍पालाल चौरडिया, तब्‍बसुम रहमानी, नाथूलाल महावर, अज्‍ज्‍वला अरोडा, गगन मालपाणी , सरूर खलिकी, ईनाम शरर, अजीज अयूब्‍ी, दर्द अकवराबादी ने भी काव्‍य पाठ किया । कार्यक्रम के मुख्‍य अतिथि शायर एवं पूर्व मंत्री जोगेश्‍वर गर्ग थे। अन्‍त में काव्‍यालोक के अध्‍यक्ष नन्‍दलाल सचदेव ने आभार ज्ञापित किया।

बारिश के दोहे

हे ईश्‍वर किस बात की, अब करता है दैर
कब बरसेगी बादली, कब से धैर धुमेर ।।

कब से रटती मोरनी, पीहू पीहू दिन रात
साजन दे उपहार में, आँसू की सौगा़त।।

बजट बरस कर रह गया, प्‍यासा फिर भी गांव
वाह मुखर्जी खूब दी, तुमने हमको छांव ।।