किशोर पारीक "किशोर"

किशोर पारीक "किशोर"

किशोर पारीक "किशोर" की कविताओं के ब्लोग में आपका स्वागत है।

किशोर पारीक 'किशोर' गुलाबी नगर, जयपुर के जाने माने कलमकार हैं ! किशोर पारीक 'किशोर' की काव्य चौपाल में आपका स्वागत है।



शनिवार, जनवरी 22, 2011

सूरज जिद्दी प्रयावरण

बुधवार, जनवरी 12, 2011

लोहड़ी की खिचड़ी

लोहड़ी की खिचड़ी


खिचड़ी तहरी हो गयी, खाने लगे पुलाव
अब लोहड़ी पर है नहीं, पहले जैसा चाव

खिचड़ी का फिर क्यों भला, उतरे मुह में कौर
जब पिज्जा से फास्ट फ़ूड, मिलते चारों और

पान मसाले फांकती, गुटकों की सौगात
त्योंहारों पर खिचड़ी, करते कैसी  बात ?

गर खिचड़ी भी हो गयी, पञ्च सितारा ब्रांड
न्यू जनरेशन खायेगी, मिला मिला कर खांड

क्या खाए खिचड़ी भला, महंगाई के भाव
चावल चीनी दाल  सब,  देते हमको घाव

खिचड़ी के हमने सुने, होते चारों यार
दही, घिरत, या गुड रहे, मिर्चीदार अचार
किशोर pareek " किशोर"

पतंगें

उडती हुई दो पतंगें आपस में उलझ पड़ी गुथम गुत्था ! दोनों ही कट कर एक छत पर जा पड़ी ! नीली नें लाल से पुछा ! क्या मिला मुझे काट कर ? लाल वाली बोली मैं कब तुमसे लड़ना चाहती थी पर मेरी डोर पर मेरा बस ही कहाँ था ! हाँ सखी पतंगें सिर्फ उड़ सकती पर उनकी डोर किसी और के हाथ होती है जो उन्हें लडाता है काटता है और फिर लूट भी लेता है ! हाँ सखी हमारी भी हालत भारत की जनता की तरह ही है जिसकी डोर जिन नेताओं के हाथ में है वही उन्हें लड़ाते कटाते हैं और लूट भी लेते है

सोमवार, जनवरी 10, 2011

काव्य टिपण्णी

भगवान भाग्य बाँट रहे थे, सारे कवि घूमने चले गए,  लौटने पर भगवान ने बताया, अरे तुम्हारा भाग्य तो मैंने दूसरों में बाँट दिया . कवियों  ने विरोध किया तो भगवान ने सांत्वना दी, देखो है तो तुम्हारे ही भाग्य का . बस तुम्हे हरेक जगह से जा जा कर लाना होगा,  इसीलिए तो सारे   कवि लगातार प्रवास किये जा रहे हैं ..

शनिवार, जनवरी 01, 2011

पतंग और दुनियादारी

पतंग और दुनियादारी


नील गगन के विस्तृत नभ पर, पंतग उडी है इधर उधर
सर- सर- फर-फर-सर- सर-फर-फर -सर- सर-फर-फर -सर- सर-फर
जब तक स्वांसों के माझें संग, इसकी यारों बनी रहे
हरसाए हम देखो तब तक आकाशों मैं तानी रहे
पवन बह रही कितनी सुन्दर, फिर भी क्यों हिचकोले हैं
होडवाद के चक्कर में तो, लगतें ये झकझोलें  हैं
पवन रहे अनुकूल इसी पर रहता है कन्ना निर्भर
झोंका नीचे खाने पर, लगने लगता हमको डर
पक्की सद्दा के संग रब हम, तेज़ स्वभाव को    बांधेगे
देर तलक अपना कन्कोवा, आसमान में में टांगेंगे
केवल तन चखी चाहो तो कारलो इसको इधर उधर
सर- सर- फर-फर-सर- सर-फर-फर -सर- सर-फर-फर -सर- सर-फर
नील गगन के विस्तृत नभ पर, पंतग उडी है इधर उधर

सूत्र हमारे हाथों में पर मन  पंतंग ज्यों डोल रहा
पेच लड़ने कोई आया तो भिड़ने को बोल रहा
अक्सर छोटों को बड्कों से , हमने तो कटते देखा
पिसल्ची को बड़ी ढाल से, बचते और भागे देखा
खिंच जायेगी झट से भैया, लालच में आओगे गर
दूर रहो दंगल बाजों से निरपेक्ष भाव से देखो भर
तब  तक कनखी उडती रहती, जब तक डोरी हाथ है
पतंग डोर का चोली दामन, जैसा होता साथ है
इक बिन दूजे ही होती, बिलकुल नहीं कदर
 सर- सर- फर-फर-सर- सर-फर-फर -सर- सर-फर-फर -सर- सर-फर
नील गगन के विस्तृत नभ पर, पंतग उडी है इधर उधर

मझां होता तेज़ स्वाभाविक, किरच काच की रहती है
बेचारी सादा जुल्मों को मूक हुई सी सहती है
कांफ पतंग की रीड लचीली, वही पतंग की शान है
अकडपना और कड़कपना तो, मुर्दों की पहचान है
सुन्दरता के चक्कर में तुम, कई जोड़ की लाओगे
बीच भंवर में फँस जाओगे, रोवोगे चिल्लाओगे
मोह छोड़ दे रंगों का तो, खुश रहे हर नारी नर
सर- सर- फर-फर-सर- सर-फर-फर -सर- सर-फर-फर -सर- सर-फर
नील गगन के विस्तृत नभ पर, पंतग उडी है इधर उधर


किशोर पारीक" किशोर"