किशोर पारीक "किशोर"

किशोर पारीक "किशोर"

किशोर पारीक "किशोर" की कविताओं के ब्लोग में आपका स्वागत है।

किशोर पारीक 'किशोर' गुलाबी नगर, जयपुर के जाने माने कलमकार हैं ! किशोर पारीक 'किशोर' की काव्य चौपाल में आपका स्वागत है।



बुधवार, मार्च 31, 2010

आता है याद मुझको, गुजरा हुआ जमाना

आता है याद मुझको, गुजरा हुआ जमाना
जब दो टके में मिलता था, पेट भर के खाना
नदियाँ सी बह रही थी, घी दूध  की वतन में
दो-चार गाय भेंसे,  रहती थी हर सदन में
तिन्नाने की मलमल, चवन्नी का चोगाना
बस दो रूपये में , बनता था सूट  एक जनाना
उस वक्त डालडा  ने,  सूरत न थी दिखाई
इन खाक सूरतों  पर, न मुर्दनी थी छाई
बीमारियाँ न दिल की,  इतनी   बढ़ी हुईथी
न ही ये जवानियाँ  यूं, फीकी पड़ी हुई थी
महंगाई का न झगडा, न कम की कमी थी
इमान की  कमाई,   इज्जत की जिन्दगी थी
अब वक्त आ गयाहै, कुछ एसी बेबसी का
होता नहीं गुजरा, बस रोना   है उसी का
भारत का हाल   क्या है, ले देख आँख वाले
मरते हैं लोग भूके, है रोटियों के लाले
पैसे की कद्रो कीमत, मिटटी में मिल गयी है
घी दूध  की ये ताकत, चाय में घूल गगी है
घूमना ना फिरना, हाय पैसा कमाना
आता है याद मुझको, गुजरा हुआ जमाना

प्रीत के मुक्तक

लिख दिया मेने तुम्हारा,  नाम अपनें नाम पर 
भौर की पहली किरण से. झिलमिलाती शाम तक 
आ भी जाओ रागिनी बन, गीत की मेरी प्रिये 
ज्यों लुटाई राधिका ने, प्रीत अपने श्याम पर  
गुनगुनाता है सवेरा, खिलखिलाती   धूप है
होश खो बैठे रयो देखे, रंक है या भूप है 
चांदनी सा अक्स हो, कैसी मधुर मुस्कान हो
नयन तक झपकूं नहीं में, क्या तुम्हारा रूप है
मौन  मुझको लग रहा, मानस की ज्यों चोपाइयां 
नयन जैसे कह रहे हों, मीर की रुबाइयां 
मुस्कान अधरों की तुम्हारे, गीत गोविन्दम लगे 
बन भी जाओ मीत मेरे, तुम मेरी परछाइयां
जो हुआ अच्छा हुआ, कैसे हुआ ये क्या हुआ
खो गया था भीड़ में, पर प्यार से तुमने छुआ
डबडबाये  नैन सब कुछ, दे गए पल भर में यूँ
जिन्दगी भर मांगता, रब से रहा में ज्यो दुआ
बंद पलकें है मेरी पर दीखता आकर है
शब्द अधरों से उतर कर, हो रहे साकार है
फर्क अब पड़ता नहीं , धूपमे और छावं में
पूछता संसार से बोलो, यही काया प्यार है
मन  के भाव को अधरों तलक हम ला नहीं पाए
तन के चाव को तुमको, कभी दिखला नहीं पाए
हमारी आँख के मोती, ढुलककर कर आपसे कहते
नगमे प्यार के सरकार, हम तो गा नहीं पाए

मंगलवार, मार्च 30, 2010

मन मेरे, मन मेरे,मन मेरे, मन, क्यों करता इतना नर्तन

मन  मेरे, मन मेरे,मन मेरे, मन
क्यों    करता  इतना   नर्तन
कभी तरंगीत कभी हताशा, पल में तोला पल में माशा
पल में तो कटुता गह लेता, पल में पानी बीच बताशा
पहन सा भारी हो जाता, अगले ही शण तू कण 
मन मेरे, मन मेरे,मन मेरे, मन , क्यों करता इतना नर्तन

जितना भी में तुझको कसता, उतना तू उलझन में फंसता
व्रस्थी बिंदु सम गिरे धूलि में, अथवा गिरा पंक में धंसता
कंकर पत्थर छोड़ बीनना, उज्जवल मोती बन
मन मेरे, मन मेरे,मन मेरे, मन, क्यों करता इतना नर्तन

उड़े पहाड़ों की श्रेणी  में, कभी चंचला की वेणी में
लिया नहीं संगम में ग़ोता,  नहीं नहाया तिरवेनी में
कबीर की चादर हेरी ना, मीरां का मोहन
मन मेरे, मन मेरे,मन मेरे, मन, क्यों करता इतना नर्तन

मन दसकंदर  को जब जीता, तब विमुक्त शीतलता  सीता
सब ग्रंथों में यही लिखा है, यही कृष्ण अर्जुन की गीता
मनके आगे जो भी हारा, वही रावण और दशानन
मन मेरे, मन मेरे,मन मेरे, मन, क्यों करता इतना नर्तन

दृग मूंदे में ध्यान लगता, मुझे छोड़  तू भागा जाता
स्थीर देह चेतना अस्थिर, जाने कहाँ कहाँ भरमाता
जड़ता तुझसे  लिपटी पगले, बन जा तू चेतन
 मन मेरे, मन मेरे,मन मेरे, मन, क्यों करता इतना नर्तन

मन कुल दीपक मन कुलघाती,मन है दूल्हा आप बाराती
मन ही सीधी -साधी गैया, मन ही है ऐरावत हाथी
मन मेनिज प्रतिबिम्ब देखले, मन अपना  दर्पण
मन मेरे, मन मेरे,मन मेरे, मन, क्यों करता इतना नर्तन

     

सोमवार, मार्च 29, 2010

अब मन किसके आगे खोले, इन घावों को कौन टटोले

अब मन किसके आगे खोले, इन घावों को कौन टटोले
निकली पांख उड़ गए पांखी, ले परवाजें होले-होले

तिनका तिनका नीड़ बनाया,
शायद यह कुदरत की माया
कोई बंधन कम न आया
विकसित कुछ अरमान हुए क्या
बन बैठे वो उड़न खटोले
अब मन किसके आगे खोले, इन घावों को कौन टटोले
निकली पांख उड़ गए पांखी, ले परवाजें होले-होले

टुकुर टुकुर तकते है राहें
अब भी आयें, अब भी आयें
नब को तकती थकी निगाहें
भूल गए घर देश ठिकाना
निकले बहुत  गज़ब के गोले
अब मन किसके आगे खोले, इन घावों को कौन टटोले

निकली पांख उड़ गए पांखी, ले परवाजें होले-होले
इन दर्दों को पीते पीते
यादों की जागीरें जीते
फिर भी हैं रीते के रीते
हम आपनी ममता से कहते
तुम भी बदलो अपने चोलें
अब मन किसके आगे खोले, इन घावों को कौन टटोले
निकली पांख उड़ गए पांखी, ले परवाजें होले-होले

रह रह कर झरते हैं नैना
दिल के टुकड़ों तुम खुश रहना
बाकी क्या तुमसे  कुछ कहना
जाने कब हम सूखे पत्ते
तेज हवा के संग में होले
अब मन किसके आगे खोले, इन घावों को कौन टटोले
निकली पांख उड़ गए पांखी, ले परवाजें होले-होले

रविवार, मार्च 28, 2010

होली पर दोहे

होली पर दोहे
गुल तितली से यों कहे, कैसे खेलूँ फाग
भ्रमरों ने की ज्यादती, लूटा सभी पराग

हीरा पन्ना दिल हुआ , तन जैसे पुखराज
नैना नीलम दे रह, नवरतनी अंदाज

देख रूप उनका हुआ, मैं होली पर दंग  
चेतन से मैं जड़ हुआ, माँ में बजी मृदंग

तट ने पूछा दूर से, टापू क्या है बात
जातीं लहरें दे गयी, चुम्बन की सौगात

प्रियतम के संकेत पर,ज्यों ही खोला द्वार
जाना कुछ ही देर में, महंगी थी मनुहार

काज़ल बोला आँख से, तुम हो पानीदार
मेरी सांगत कर बनो, तीखी कुटिल कटार

गली गरारे गोरियां, नहीं गोप नहीं फाग
गीतों में झरता न अब, पहले सा अनुराग

कृतिकार  और लेखनी, कव्यलोकी मंच
गीत ग़ज़ल ले दोड़ते, शब्दों के सरपंच


  

काव्‍यालोक: खोया बचपन कैसे लोटे, मित्र पुराने छोटे-छोटे

काव्‍यालोक: खोया बचपन कैसे लोटे, मित्र पुराने छोटे-छोटे

खोया बचपन कैसे लोटे, मित्र पुराने छोटे-छोटे

खोया बचपन कैसे लोटे, मित्र पुराने छोटे-छोटे
यादों की पुरवाई लाये, सावन में झूलों के झोटें

चंदामामा से बतियाना,
धमा चोकड़ी शोर मचाना
माँ के आँचल में छुप जाना
शेतानी पर पापा भरते,
बगल हमारे गजब चिकोटे
खोया बचपन कैसे लोटे, मित्र पुराने छोटे-छोटे
यादों की पुरवाई लाये, सावन में झूलों के झोटें

धरती,अम्बर, नदिया,पानी
परियां, तितली,राजा-रानी,
मीठी नींद सुलाती नानी
रंग बिरंगी, सतरंगी हम
पतंग उड़ाते जा परकोटे
खोया बचपन कैसे लोटे, मित्र पुराने छोटे-छोटे
यादों की पुरवाई लाये, सावन में झूलों के झोटें
भाता जादू खेल मदारी
नहीं सुहाता बस्ता भारी
पढना तो लगता लाचारी
हर इच्छा पूरी होती थी
घर में रहे भले हो टोटे
खोया बचपन कैसे लोटे, मित्र पुराने छोटे-छोटे
यादों की पुरवाई लाये, सावन में झूलों के झोटें
दोडाते कागज़ की नैया
प्यारी लगती गया मैया
हमे जगती रोज चिरैया
रह-रह कर झरते है नैना
कितनी यादें हमें कचोटे
खोया बचपन कैसे लोटे, मित्र पुराने छोटे-छोटे
यादों की पुरवाई लाये, सावन में झूलों के झोटें

देशभक्ति कुछ मुक्तक

जिसने दी है जान देश हित, उनका वंदन और नमन
जिसने रखी शान देश की, उनका करते अभिनन्दन 
फँसी  के   फंदे चूमे, सीने पर गोली  खाई
भारत माँ के वीर सपूतों, तुमको वंदन और नमन
गाइये तुम गीत बंधू , मीत प्रीत प्राण  हो
छेडिये   संगीत बंधू, सात सुर की तांन हो
देश मांगे जब, लहू तो भूल जाएँ प्यार-वार
दिल में जज्बा मात्रभू का, जय घोष हिंदुस्तान हो 
माँ भारती सपनो में आयी, दीखती अधीर थी
अपनों से मिली चोट की, मुख पे उसके पीर थी
मुझे लूटते थे परदेशी, अब घर वाले नोच रहे
पुत्र बता में जिसे चाहती क्या वो यह तस्वीर थी

शनिवार, मार्च 27, 2010

सूर्य हो प्रचंड नभ, आग बरसाता रहे



गर्मी में सेनिक

सूर्य हो प्रचंड नभ, आग बरसाता रहे
धूल चक्रवात रहे, धरा पर चढ़ा हुआ
रेत पारावार में भुने, जाते है जैसे प्राण
जैसे अन्न भुने तप्त, भाड़ में पड़ा हुआ
नेह की उमंग, प्रिय संग भूल राग रंग
देश की सुरक्षा में, किशोर तू अड़ा हुआ
शत्रु हेतु कल, ये मुकुट भारती के भाल
धेर्यवान लाल, तेरे बल पे जड़ा हुआ

गर्मी में मजदूर

झरनों से झरता है ,स्वेद पूरी काया से
सूर्य का प्रचंड तेज, झुलसाये जाता है
जेठ का महिना, भारी लगता है जीना
डामर की सड़कों को, पिघलाए जाता है
हम तो जनाब, ऐसी कूलर में बैठते हैं
दिहाड़ी मजूर का तो, मजूरी से नाता है
मजूरी नहीं तो, पेट परिवार जलता है
मजूरी मिले तो, धूप ताप सह पता है

शुक्रवार, मार्च 26, 2010

खुशबु कैसे महके मेरे गीतों में

खुशबु कैसे महके मेरे गीतों में
मैं कागज़ पर आग कलम से बोता हूँ
लिखता हूँ मैं दर्द जमाने के यारों
लिखता तो पीछे हूँ पहले रोता हूँ

ठंडी रातें बिता रहे फुटपाथों पर
मेरे शब्द चित्र उनको सहलायेंगे
पोंछ सके गर आंसू उनकी आँखों के
तबही सच्चे नगमे गीत कहायेंगे
कितने भी तूफान डराए धमकाये
ले पतवारे खड़ा साथ में होता हूँ
मैं कागज़ पर आग कलम से बोता हूँ

अलंकर छंदों की भाषा, क्या जानू
उपमा नवरस स्लेश भाव क्या होते है
मुझको तो बस दर्द दिखाई देता है
मैं जनमानस के क्रंदन का स्रोत हूँ
मैं कागज़ पर आग कलम से बोता हूँ

कदम बढ़ाते मात्रभूमि की रक्षा में
मेरी कलम नमन करती उन वीरों का
जो दुश्मन को धुल छठा दे छन भर में
वंदन करती कलम उन्ही शमशीरों का
विजय पताका लिए लोटता जब रण से
शब्द सुमन के हार अनेक पिरोता हूँ
मैं कागज़ पर आग कलम से बोता हूँ

जो पापी अन्यायी है अत्याचारी है
मेरी कलम सबक उनको सिखलाएगी
भारत माँ की छाती में जो घाव करे
कलम यही ओकात उन्हें बतलाएगी
किन्तु शहीदों के अति पावन चरणों को
शब्द अश्रु के गंगा जल से धोता हूँ
में कागज़ पर आग कलम से बोता हूँ
खुशबु कैसे महके मेरे गीतों में
मैं कागज़ पर आग कलम से बोता हूँ
लिखता हूँ मैं दर्द जमाने के यारों
लिखता तो पीछे हूँ पहले रोता हूँ







गुरुवार, मार्च 25, 2010

नेनों ने किया कमाल, सजनियाँ मुस्काई, होली में हुआ निहाल, बजी मन शहनाई !

नेनों ने किया कमाल, सजनियाँ मुस्काई,
होली में हुआ निहाल, बजी मन शहनाई !
रूप की दमक जैसे, हीरे की चमक जैसे,
कुंतल से छन -छन चांदनी फुआर हो
लोचन कटार धार, करे यार ऐसी मार,
बींधती करेजवा को, हुई आर- पार हो
कोई सी आवारा लटें, डोलती कपोलन पे,
चूम आचमन करे, फल रसदार हो
गोरियाँ लजाई, मुख अंगूरी दबाई,
मानो बिजुरी गिराई, लगा प्रीत की खुमार हो
सेनों से किया सवाल, साथ में अंगड़ाई ,
होली में हुआ निहाल, बजी मन शहनाई

एक एक पल मुझे साल के सामान लगे ,
कटी कैसे मेरी यार, एक वो विभावरी
प्रीत रोग हुआ नया, नींद उडी चेन गया,
में तो हुआ बावरा सा,संग वो भी बावरी
कल्पना में रही साथ, चंद्रमुखी उस रात,
याद आती रही मुझे ढेर सारी शायरी
बार बार कोंधती थी, दामनी हिये में मेरे,
चांदनी सुखद लगी शीत में जो तावरी
ये कैसा मचा बबाल , याद अक्षर ढाई,
होली में हुआ निहाल, बजी मन शहनाई


प्रीत की मली गुलाल, गोरिया के दोनों गाल
पिच्चकारी रंग लाल , लगी अंग अंग के
सर र र , सर र र, कामनी के अर र र र
टूट गए तंग , उस मोहनी पतंग के
लगा थम जाये घडी,बिन पिए ऐसी छड़ी
सुरताल बज उठे , हिये की मृदंग के
गमकते जैसे हो गए सजीव मित्र
कैसे रचु चित्र मैं, विचित्र से प्रसंग के
मैं हो गया माला मॉल , छबीली इतराई
नेनों ने किया कमाल, सजनियाँ मुस्काई,
होली में हुआ निहाल, बजी मन शहनाई

मंगलवार, मार्च 23, 2010

तरह तरह के स्वांग रचाते ये बाबा, गिरगिट को भी परे बिठाते ये बाबा

तरह तरह के स्वांग रचाते ये बाबा,
गिरगिट को भी परे बिठाते ये बाबा
राम नाम पर दम कमाते ये बाबा
तिरवेनी मेली कर आते ये बाबा !

उजला इनका वेश, चरितर काला है
दिन में इनके हाथ, कमंडल माला है
निश में प्याला, बाला है, मधु शाला है
मदनोत्सव हर रोज, मनाते ये बाबा,

तरह तरह के स्वांग रचाते ये बाबा,

नाम योग का, किन्तु भोग में भरमाना
रब से पब तक, का रखते है याराना
तकिया तोशक, साकी संग पीना खाना
इन्द्र अखाडा नित्य सजाते ये बाबा !
तरह तरह के स्वांग रचाते ये बाबा,

उपकारी ये नही, बहुत है अपकारी
ये विषधर है, मणिधारी, इच्छाधारी,
ये कुंठित अति अर्थ कम के व्यापारी
धर्म के बदले, पाप कमाते ये बाबा !
तरह तरह के स्वांग रचाते ये बाबा,

ये तो अपने बुड्डों के भी बापू हैं
परिग्राही है छदम लुटेरे डाकू हैं
मुख से बोले राम, बगल में डाकू हैं
बातों में बेन्कुंत पढ़ाते ये बाबा !
तरह तरह के स्वांग रचाते ये बाबा,

मत पालो इनके चक्कर में तुम पंगा
मन चंगा तो, है कठोती में गंगा
इनसे भला "किशोरे" गली का भिखमंगा
लाखों हड़प भभूत, टिकाते ये बाबा
तरह तरह के स्वांग रचाते ये बाबा,

तरह तरह के स्वांग रचाते ये बाबा,
गिरगिट को भी परे बिठाते ये बाबा
राम नाम पर दाम कमाते ये बाबा
तिरवेनी मेली कर आते ये बाबा !