किशोर पारीक "किशोर"

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गुरुवार, अगस्त 27, 2009

हिन्‍दी दिवस पर - अपनी हिन्‍दी । i


अपनी हिन्‍दी कुछ लोगों का, क्यों लगती बैगानी सी
हिन्‍द देश में हिन्‍दी दासी, अगरेजी पटरानी सी
मानव तन देकर वाणी दी, ईश्वर ने उपकार किया
देवनागरी लिपि देकर, फिर भाषा का उपहार दिया
घिस घिस कर मां की घूटी संग हिन्‍दी का अनुपान किया
जिसमें रोये और हंसे हम, सोचा समझा ध्‍यान किया
भाषायें है रंग रंगीली, भाषाओं के वंश यहाँ
प्राकृत पाली सौर सैनी है, संस्कृत है अपभ्रंश यहाँ
भाषाओं के बाग़ यहां पर अद्भुत और विहंगम हैं
भाषाओं की धाराऐं है और त्रिवेणी संगम है
भाषा संगम में है हिन्‍दी गंगाजी के पानी सी
अपनी हिन्‍दी कुछ लोगों का, क्यों लगती बैगानी सी

समवेत गान की अद्भुत क्षमता इस हिन्दी भाषा में है
सात लाख शब्‍दों की ताकत, भी हिन्‍दी भाषा में है
विकसित राष्‍ट्र बनाने की जिसमें थोड़ी अभिलाषा है
जन जन को जोड़े आपस में, ऐसी हिन्‍दी भाषा है
शोषक की भाषा को पकड़े रखना तो दुखदायक है
मैकाले की रूह दासता का ही तो परिचायक है
जिसकी मायड़ भाषा समझी जाती जो बेचारी है
राष्‍ट्र कोनसा दुनियां में वों, गौरव का अधिकारी है
अँग्रेज़ी क्यों लगती उनको, लन्‍दन की महारानी सी
अपनी हिन्‍दी कुछ लोगों का, क्यों लगती बैगानी सी
मींरा से उसके नटनागर हिन्‍दी में बतलाते थे
रसखान सूर कान्हा को हिन्दी में तान सुनाते थे
और कबीरा ने हिन्दी की साखी में जो बात कही
तुलसी के मानस से जमकर हिन्दी की रसदार बही
दिनकर पन्‍थ महादेवी ने हिन्‍दी का सरसाया था
और निराला ने हिन्दी में ही साहित्य रचाया था
हिन्दी के मंत्रों से ही तो, राष्‍ट्र चेतना आयी थी
अँग्रेज़ों को भगा देश से, हमने आजादी पायी थी
उस हिन्दी का मान नहीं हैं, मुझको है हैरानी सी
अपनी हिन्‍दी कुछ लोगों का, क्यों लगती बैगानी सी

कहने को तो हिन्‍दी में ही सारे विधि विधान है
मान दे रहा इसको देखो अपना संविधान है
फिर भी सिसक रही हिन्‍दी क्‍यों, अपने भारत देश में
बैठे हैं कुछ गोरे अब भी, अपनों के परिवेश में
एक दिवस हिन्दी का केवल, भला नहीं हो पायेगा
जब तक पूरा देश, ह्रदय से इसे नहीं अपनायेगा
माना विश्व संवादों हेतु अन्‍य भाषाऐं धूरी है
हिन्दी को मां माना है, तो सेवा भी जरूरी है
हिन्दी दवों की वाणी है, रानी है महारानी सी
अपनी हिन्‍दी कुछ लोगों का, क्यों लगती बैगानी सी

गीत

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