गर्मी में सेनिक
सूर्य हो प्रचंड नभ, आग बरसाता रहे
धूल चक्रवात रहे, धरा पर चढ़ा हुआ
रेत पारावार में भुने, जाते है जैसे प्राण
जैसे अन्न भुने तप्त, भाड़ में पड़ा हुआ
नेह की उमंग, प्रिय संग भूल राग रंग
देश की सुरक्षा में, किशोर तू अड़ा हुआ
शत्रु हेतु कल, ये मुकुट भारती के भाल
धेर्यवान लाल, तेरे बल पे जड़ा हुआ
गर्मी में मजदूर
झरनों से झरता है ,स्वेद पूरी काया से
सूर्य का प्रचंड तेज, झुलसाये जाता है
जेठ का महिना, भारी लगता है जीना
डामर की सड़कों को, पिघलाए जाता है
हम तो जनाब, ऐसी कूलर में बैठते हैं
दिहाड़ी मजूर का तो, मजूरी से नाता है
मजूरी नहीं तो, पेट परिवार जलता है
मजूरी मिले तो, धूप ताप सह पता है
धनाक्षरी छ्म्द में सुन्दर रचनाएँ बन पड़ी है, वाह!
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