ज्यो कुछ कहना हो कह लेते, नहीं यहाँ पर कोइ टोक
कविता दोहे छंद गीत संग, छंद ग़ज़ल रूबाई गले मिले
तुलसी सूर कबीरा मीरां, का घर लगता काव्यालोक
होली के रंग रंगते इसके , दर दीवार दरीचे चोक
ईद मनाते हँसते गाते, दीवाली पर है आलोक
दिखा रही है हमें दिशायें,पंथ निराला दिनकर की
मात शारदा की चोखट सा, लगता हमको काव्यालोक
किशोर पारीक "किशोर"
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