किशोर पारीक "किशोर"

किशोर पारीक "किशोर"

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किशोर पारीक 'किशोर' गुलाबी नगर, जयपुर के जाने माने कलमकार हैं ! किशोर पारीक 'किशोर' की काव्य चौपाल में आपका स्वागत है।



शुक्रवार, फ़रवरी 11, 2011

गूँगा-बहरा जग हुआ, कौन सुनेगा पीऱ?






किस कदर काटी अंधेरी रात, हमसे क्या छिपा है? चाँद, सूरज रोशनी लाएँ तुम्हारी जि़न्दगी में, इस कदर से शुभ कामनाएँ, हों फलित तुम्हारी जि़न्दगी में,ऐसी सुन्दर शुभकामना से भरी चतुष्पदी के साथ ही अपनी ताज़ा चतुष्पदियों व अपने विख्यात गीत” गा मेरी जि़दगी कुछ गा सुनाकर” वरिष्ट साहित्यकार प्रो. नन्द चतुर्वेदी ने “तनिमा “मासिक पत्र के त्रिदिवसीय डॉ. भँवर सुराणा स्मृति समारोह के दूसरे दिन आयोजित कविसम्मेलन को जीवन्त व यादगार बनाया।

श्री नन्द चतुर्वेदी के मंगल सानिध्य में नगर के बाहर से आमंत्रित शायर व कवियों ने मुक्तकों, दोहों, गीत और गज़लों की रसवर्षा से देर रात तक श्रोताओं को बाँधे रखा। कवि सम्मेलन का आगाज़ संचालन कर रहे जयपुर से आए कवि श्री किशोर पारीक किशोर ने माँ सरस्वती की वन्दना से किया। दिल्ली से आये युवा शायर अनस ख़्ाान ने अनेक गंभीर दोहे पेश कर श्रोताओं को अचंभित कर दिया। उन्होंने तनिमा की संपादक को अपनी कुछ पंक्तियाँ यूँ समर्पित की- कि ख्वाबों में जो देखी थी, ऐसी हर सुबह आये, सूरज से शफक टूटे, सितारों में बिखर जाये।बहुत देखें है अहले ज़र, बहुत देखी मसीहाई,जो आप आयें तो महिफल का अलग ही रंग ढ़ल जाये।ज़र्रा- ज़र्रा रोशन हो, इतनी ताब बढ़ जाये,बुरी नज़र जो तुमपे डाले, आँखों से पिघल जाये।। श्री अनस ने अपने उम्दा दोहों-जैसे,बदन छुपा कर क्या होगा, जग चरित नहीं मज़बूत। तालों के भी क्या बस में, जब कुण्डी जाये टूट।।अलग-अलग हैं सब के रस्ते, अलग-अलग है चाल।बगुला नापे अंबर को, कछुआ चाटे ताल।।बड़े शहर से अपनी दूरी रखिये मीलों-मील।

पीपाड़ सिटी-जोधपुर से आमंत्रित कवि श्री राम अकेला ने हास्य की ताज़ा फूलझडिय़ाँ छोड़ीं व अपना रंग जमाया। उन्होंने शुरूआत इन पंक्तियों से की कि कविता की सर्दी से बचना चाहो तो,तालियों की रज़ाई ओढ़ लीजिये।कुछ मुक्तक सुनाकर उन्होंने आखिर में श्रोताओं को मुक्तक सुनाया कि“सुहाना हर दिन होगा, सुहानी हर रात होगी, आपको जो पसंद हो, वही बात भी होगी,बिछड़ रहा हूँ दोस्तों इस उम्मीद से, जि़न्दा रहे तो फिर मुलाकात होगी।



जयपुर से आये कवि श्री चन्द्र प्रकाश चन्दर ने दोहे पेश कर अपना प्रभाव छोड़ा - गूँगा-बहरा जग हुआ, कौन सुनेगा पीऱ? गौशाला सूनी पड़ी, मधुशाला में भीड़। उनकी गज़ल- ख़्वाब देखा था दिल लगाने का, बग पता गुम है आशियाने का, जयपुर के ही मशहूर गीतकार श्री बनज कुमार बनज ने एक से बढ़ कर एक अनेक दोहे सुनाकर सभी की वाहवाही ली, जैसे -फूलों के संग रह रहा, मैं माटी का ढ़ेर, मुझमें भी बस जायेगी खुशबु देर-सबेर।एक अकेला कर रहा, सब के सारे काम,सब मिल कर ऐसा करो, वो करले आराम।

इन दोहों के साथ ही उनके द्वारा प्रस्तुत गीत चला चला मैं चला रात भर,चंदा को कांधे पे धर कर ने कवि सम्मेलन को ऊँचाइयाँ प्रदान की।



जयपुर की शायरा व कवयित्री श्रीमती शोभा चन्दर ने चन्द मुक्तकों से अपना काव्य पाठ शुरू किया। उन्होंने एक मनोहारी राजस्थानी छन्द सुनाकर खूब दाद लूटी धन्य धरा मेवाड़ री जन्म्या पूत अनेक,

लाखां पर भारी पड़ै, थारौ जायो एक। उनकी गज़ल- रंगीनियों को आहे रसा कौन दे गया? शहनाइयों में $गम की सदा कौन दे गया? एवं सुमधुर गीत -यूँ ना देखो मुझे तुम सजन प्यार से, गीत बन कोई अधरों से कह जाऊँगी। -ने सभी को लुभाया । जयपुर के ही श्री किशोर पारीक स्वाईन फलू पर आधारित हास्य रचना से सभी को गुदगुदाने में क़ामयाब रहे। उनका गीत हम भारत हैं दुनिया वालों हम से बात करो ने कविसम्मेलन में राष्ट्रभक्ति के स्वर बिखेरे। देश भक्ति के गीत गाने वाले वरिष्ट गीतकार चित्तौडग़ढ़ से आये श्री अब्दुल जब्बार ने चन्द मुक्तक व अशआ्र कहे व सभी को सोचने पर मज़बूर कर दिया। जैसे जीने दो हर बशर को ख़्ाुद भी जिया करो, तितली के परों तलक की हिफाज़त किया करो जैसे मुक्तक से अपना प्रभाव $कायम किया। उन्होंने आगे भी बेहतरीन अशआर ्कहे-जैसे कि- मंदिर-मस्जि़द बनाने से बनाने से बेहतर है, सी गरीब की बेटी को गोद ले लेना।उस शहर से उजाले कोसों दूर रहते हैं, जिस शहर में एकता और भाईचारा नहीं होता।उनका गाया राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत गीत -मत लूटो इस देश के जैसा दुनिया में कोई देश नहीं, न$फरत के बीज बोने को, ये आँगन ये देश नहीं, भी सभी को झूमने को मज़बूर कर गया।

बाँसवाड़ा से आमंत्रित मशहूर शायर ने अपने बेहतरीन $कलाम पेश कर के कवि सम्मेलन को शानदार बना दिया। उन्होंने सबसे पहले कुछ मिसरे तनिमा को नज़र किये- किहज़ारों बुलबुले उठ-उठ के मिट जाते हैं दरिया में,न मौंजें याद रखती हैं ना साहिल याद रखता है, मगर वो $कश्तियाँ जो टक्कर लेती हैं तूफ़ाँ से, उन्हीं को मुद्दतों हर साहिबे दिल याद करता है।उनकी पेश की गई-गुलशन में जो परिन्दा चहकता दिखाई दे, सैयाद का उसी पर निशाना दिखाई दे।बेटा नहीं है घर में अगर तो क्या, बेटी का $कद भी बेटे से ऊँचा दिखाई दे।ने सभी के दिलों पर दस्तक दी। वहीं उन्होंने अपनी दूसरी गज़ल-जो साज़े अहले सियासत से राग निकलेंगे-तो आस्तीनों से ज़हरीले नाग निकलेंगे, मुझे य$कीन है ये बहुरूपियों की बस्ती है-यहाँ पे हंस की सूरत में काग निकलेंगे। -को सुना कर सभी को सोचने पर मज़बूर किया। उनकी अगली $गज़ल-क्यँू होता नहीं कोई असर मेरी दुआ का ,क्या अब भी गुनहगार हूँ,मैं अपने ख़्ाुदा का?मज़बूर हो के बेच रहा हँू मैं ख़्ाून भी अपना, करना है इन्तज़ाम मुझे माँ की दवा का।मत कर गुरूर वक़्त अगरमेहरबान है, क्या जाने कब मिजाज़ बदल जाये हवा का? उन्होंने दिलकश तरन्नुम में पेश कर खू़ब दाद लूटी। जनाब मेहशर अफगानी की बेहतरीन गज़ल-उसके घर मैं गया सोचते- सोचते, वो भी मुझसे मिला सोचते-सोचतेहो गये मुब्तला हम तो इफलास में, भाइयों का भला सोचते-सोचते। ने तो श्रोताओं को मुकर्रर-मुकरर्र कहने को मज़बूर कर दिया।



बूँदी से आये अंगद दैनिक के संपादक-प्रकाशक श्री मदन मदिर ने अपनी आक्रामक तेवरों में ओजपूर्ण कविता -जि़न्दगी जगाओ रे गीत को सजाओ रे, ये सारे अंधियारे मिलकर हमलावर हैं, समता की किरणों को नौंच-नौंच डालेंगे, कै़द कर लिया चाँद-सूरज को, चाँदनी को ये पंजे लील-छील जायेंगे सुनाकर कविसम्मेलन में श्रोताओं को मौजूदा हालात व यथार्थ से रूबरू कराया। जयपुर से आमंत्रित राजस्थान पत्रिका के समाचार समन्वयक श्री दिनेश ठाकुर ने अपनी बेहतरीन गजलों से कविसम्मेलन में वाहवाही पाई। उन्होंने गज़ल-कभी आँसू कभी ख़्वाबों के धारे टूट जाते हैं, ज़रा सी बात में क्या-क्या नज़ारे छूट जाते हैं। औररूठ गया जाने क्यूँ हमसे जाने क्यूँ घर छोड़ गया,नींद उठा के ले गया सारी, खाली बिस्तर छोड़ गया।ख़्ाुद में पाकीज़ा सी ख़्ाुशबू हरदम बिखरी रहती है,

जैसे तुलसी का पौधा वो मेरे अन्दर छोड़ गया। सुनाई। उनकी ये गज़ल भी सभी को छू गई- नये भी हैं पुराने भी, कई$िकस्से है जीने में ज्य़ादा लुत्$फ है उसमें जो $गम जितना पुराना है। कभी तुम जड़ को छूतेे हो, कभी शाख़्ाो को छूते हो,हवा छूकर बता देगी शजर कितना पुराना है? ऐसे कई अनूठे से अशआर् कह के श्री दिनेश ठाकुर ने अपना $खूब रंग जमाया।उनकी एक और गज़ल सभी ने पसंद की-वो ये थी -यही दस्तूर है शायद वफादारी की दुनिया का, जिसे तुम जिस कदर चाहो वही तकलीफ देती है। शिकायत कर रहा था आसमाँ से एक सहरा कल, मुझे ख़्वाबों में अक्सर इक नदी तकलीफ देती है।तनिमा की संपादक शकुन्तला सरूपरिया ने कविता-मोबाईल सैट नहीं होती हैं बेटियाँ एवं एक ग़ज़ल-ज़मीं हूँ मैं खुद ही मैं खुद आसमाँ हूँ, मैं दुनिया में तन्हा मैं खु़द कारवाँ हूँ मेरे बोल मीठे मेरे बोल सच्चे,मैं जिन्दादिली का ख़्ारा ख़्ाुद बयाँ हूँ। उन्होंनेतरन्नुम में पेश कर अपना प्रभाव $कायम किया।कविसम्मेलन की अध्यक्षता कर रहे श्री किशन दाधीच ने सबसे पहले एक गीत वरिष्ट कवि श्री नन्द चतुर्वेदी के नाम गाया-मुझको डर है तुम जाओगे, एक दिवस सबके, मनबसिया, नन्द तुम्हारे बिन गाएँगे, कैसे हम होरी के रसिया? जिसे सुनकर श्रोतागण विस्मित से रह गये। उनकी चिरपरिचित कविता ज्योतिपुत्रों आपकी सूचना के लिये-ने सभी को प्रभावित किया। वहीं उनकी गाई गज़ल -एक जुलाहा गा रहा है चरखियों की चाल पर,अब तुम्हारी चाल जैसी जि़न्दगी है आजकल, ने उस कवि सम्मेलन को सरस बना दिया।

कवि सम्मेलन के आरंभ में मुख्य अतिथि कारा.ना.विवि की कुलपति प्रो. दिव्यप्रभा नागर ने कहा कि कविता जो अपने परिवेश को संवेदना से भरती है वह इस कठिन समय में सभी के लिये बेहद आवश्यक है। वह कविता ही है जो मनुष्यता को संवेदना से जोड़े रखती है। उन्होंने अपने उद्बोधन में सभी से तनिमा के हाथ मज़बूत बनाये रखने की अपील भी की व संपादक शकुन्तला सरूपरिया के संपादन कौशल की पं्रशसा करते हुए उन्हेंं तनिमा के पाँच वर्ष पूर्ण होने की बधाई दी। विशिष्ट अतिथि जेके सीमेन्ट -निंबाहेड़ा के सलाहकार दोहा सम्राट श्री ए.बी. सिंह ने अपने दोहे सुना कर कवि सम्मेलन को नया माहौल दिया।- नहीं अकेले से चले दुनिया हो या देश, सभी तीन इसमें लगे, ब्रम्हा विष्णु महेश। सरिता जीवन दायिनी धरती मात समान, हर पत्थर शंकर जहाँ वो है हिन्दुस्तान। उन्होंने कहा कि यह दुनिया भले लोगों अच्छे कार्यों पर ही टिकी है, जीवन में हमारा यही प्रयास होना चाहिये कि हम अपने अलावा समाज व देश मानवता के बारे में सोचें। विशिष्ट अतिथि जीबी बिल्डस्टेट के मालिक व समाज सेवी श्री भरत शर्मा ने तनिमा की संपादक शकुन्तला सरूपरिया के 25 कोलाज़ व कविताओं की सूचना केन्द्र कलादीर्घा में फीता काट कर उद्धाटन किया। धन्यवाद की रस्म श्रीमती उषा किरण दशोरा ने अदा की।तीसरे दिन मुशायरा:::::::::

तनिमा के स्थापना दिवस पर स्व: डॉ. भँवर सुराणा स्मृति समारोह के तीसरे दिन सूचना केन्द्र सभागार में ही मुशायरे में उदयपुर व बाहर से आए शायरगणों ने गज़लों व नज़्मों की झड़ी लगादी और मुशायरे को यादगार बनाया। स्थानीय शायर पुष्कर गुप्तेश्वर ने मधुर स्वरों में गाकर वीणावादिनी जय हो माँ -माँ शारदे की वन्दना से मुशायरे का अच्छा आगाज़ किया। उन्होंने अपनी दो उम्दा गज़लें- जैसे दिल का धडक़ना ज़रूरी है, तुम्हारे बिना जिंन्दगी अधूरी है और हौसला तोड़ तोड़ रखता है,वाह क्या ख्ब जोड़ रखता है- सुनाकर सभी को लुभाया, वहीं राजस्थानी में मूंगो घणो मुजरो, सस्तो मती जाण, जैसे दोहे भी सुनाये। उनके बाद शायर इ$कबाल हुसैन इ$कबाल ने अपने कलाम पर खूब दाद लूटी- कभी राज़ ये भी समझ कर तो देखो, किनारों से उलझा समन्दर तो देखो। या- इधर से वार होता है, उधर से वार होता है, बताएँ क्या तुम्हें कैसे स$फीना पार होता है। दोनों पालों में मैं ही खेलूँ, मैं ही फेंकू मैं ही झेलूँ -जैसी $गज़लें सुनाकर उन्होंने सियासत पर तंज किये व दाद पाई। मज़ाहिया अन्दाज़ के शायर जनाब मुश्ता$क चंचल ने तनिमा के नाम सबसे पहले कुछ मिसरे पढे- $खबरें साहित्यिक पढिय़े, मज़मून ताज़ा पढिय़े,जो पढऩी हों नब्ज़े धडक़ने, तो $खरीद के तनिमा पढिय़े। उनके सभी मज़ाहिया $कलाम श्रोताओं के चेहरों पर मुस्कान बिखेर गये। शायर श्री जगजीत सिंह निशात ने तरन्नुम में गाते हुए अपनी ख़्ाूबसूरत सी नई $गज़ल में मौजूदा अख़्ाबारी दुनिया पर तंज कसा कि- कल जो गुज़रा हड़तालों में, घेरावों में और नारों में, सच्चा-झूठा छपा हुआ है देख लो सब अख़्ाबारों में। तूने कितने कै़द किये, मैंने कितने कै़द किये,ऐसी होड़ लगी है छोटी-छोटी सी दीवारों में। घर-घर आँगन-आँगन घूमा, चूल्हा-चूल्हा छान चुका, ये सर्दी कैसे गुज़रेगी, आँच नहीं अंगारों मेंंं। शायरा ज़ौहरा अहसान ने अपनी माँ के उन्वान से बेहतरीन नज़्म कही व अपनी $गजलों पर सब की तारी$फ हासिल की,अपने अहसास की शम्मों को ऐसे गुल कर कर के,

कितने दिन ख़्ाुद को उजालों से बचा पाओगे,या जि़न्दगी ऐसे कटी कोई सज़ा हो जैसे, सने मुझ पर कोई अहसान किया हो जैसे। और महफ़िल जिनमें परवाज़ की ताकत न रही बाकी, उन परिन्दों को घरौंदो में बसाया जाये जैसी गज़लों से अपना शानदार रंग महफ़िल में जमाया। शायर जनाब इकबाल ने चन्द खुले अशआर् भी कहे – अगर जन्नत कहीं होती ज़मीं पर, यहीं होती, यहीं होती होती यहीं पर। या हरे शजर ना सही सूखी घास ही रहने दे, अरे ज़मीं के बदन पर कुछ तो लिबास रहने दे।

उनकी तरन्नुम में पेश की गई गज़ल पराये गम में यूँ आँसू बहाने कौन आता है, पुरानी क़ब्र पर शम्में जलाने कौन आता है? ने सभी को झूमने पर मज़बूर कर दिया। हमें इस बात पर ही सबसे पहले $गौर करना है पड़ौसी को पड़ौसी को लड़ाने कौन आता है?

तनिमा की संपादक शकुन्तला सरूपरिया ने बेटियों के कोख में मारे जाने पर गज़ल कही-पराया धन क्यूँ कहते हो तुम्हारा हीखजाना हूँ जीने दो कोख में मुझको मैं जीने का बहाना हूँ। साथ में ही उन्होंने अपनी नज़्म-ये बेटियाँ हैं कहानियाँ कि कहानियों सी बेटियाँ-हर ज़ुल्म के निशाने पे निशानियों सी बेटियाँ- सुनाकर सभी को सोचने पर मज़बूर कर दिया।

दिल्ली से आये अनस खान ने दोहे व अशआर् कहे- महानगरों की जि़ंदगी पर उन्होंने कुछ यूँ बात रक्खी- मुख़्तसिर सी उम्र में बस एक जवान रहती है, ना कोई दादी रहती है ना कोई नानी रहती है। सबने इसे पसंद भी किया।




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