आजाओ बरखा बाहर बन, मन मेरा सरसादो
हटा आवरण प्रथम पृष्ट से पुस्तक पढ़ खो जाऊं
छंद मयी, मैं तुम्हे बांचकर, कवितामय हो जाऊं
कुटिल नयन-संकेतों से ही, जटिल अर्थ समझादो
आजाओ बरखा बहार बन, मन मेरा सरसादो
शीतलता को भेज धरा पर, रजनीचर मुस्काया
मंद ज्योत्सना की किरणों ने, विस्तारी निज माया
मेरे उर के सतत दाह पर, दृष्टी - वृष्टी बरसादो
आजाओ बरखा बहार बन, मन मेरा सरसादो
मिलन अनूठा हो धरती का, जैसे घन अम्बर से
अथवा मदिर कंज कलिका का, होता मस्त भ्रमर से
त्यों ही सघन श्याम कुंतल ये, मेरे मुख छिटका दो
आजाओ बरखा बहार बन, मन मेरा सरसादो
भोर दुपहर सिंदूरी संध्या रातों की तनहाई
सतत प्रतीक्षा में ही मेंने, आधी उम्र बिताई
मोन पड़े जीवन साजों पर, सरगम मधुर बजादो
आजाओ बरखा बहार बन, मन मेरा सरसादो
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