मैंने जब से चलना सीखा, तबसे चलता रहा निरंतर
धरती नापी, अम्बर नापा, नापे अनगिन दिशा दिशंतर
गिरकर संभला में मुस्काता, राहों पर जब भी में फिसला
समय चक्र की सीमा तोड़ी, पार किये हैं कई युगंतर मैंने जब से चलना सीखा, तबसे चलता रहा निरंतर
बाधा बनकर अड़ी हुई थी, ठोकर से चट्टानें तोड़ी
चाहे धुल भरे पथ कितने, मैंने डगर कभी ना छोड़ी
संकट ने देखा जब निश्चय, संग में मेरे चला तदन्तर
मैंने जब से चलना सीखा, तबसे चलता रहा निरंतर
सूरज से गति की दीक्षा ले, गीत सफलता के में गाता
पांवों में विस्वास लिए, हरदम मंजिल को पा जाता
तुफानो से टकराता में, सागर का नापा है अंतर
मैंने जब से चलना सीखा, तबसे चलता रहा निरंतर
इसीलिए में कहता हरदम, आशाओं के दीप जलाओ
चाहे अन्धकार हो कितना, पथ पर आगे बढते जाओ
समय घड़ी मुहरत मत देखो, जादू टोना जंतर मंतर
मैंने जब से चलना सीखा, तबसे चलता रहा निरंतर
किशोर पारीक "किशोर"
बहुत सुंदर कविता
जवाब देंहटाएंइसीलिए में कहता हरदम, आशाओं के दीप जलाओ
जवाब देंहटाएंचाहे अन्धकार हो कितना, पथ पर आगे बढते जाओ
bahut sundar sandesh...sundar rachna
बहुत सुन्दर रचना ..भाई मेरे ब्लॉग समयचक्र और निरंतर का नाम भी आपकी रचना में आया है तो पढ़कर बहुत खुश हो रहा हूँ..आभार
जवाब देंहटाएं..नया अंदाज है कहने का..बहुत खूब.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर !
जवाब देंहटाएंकविता को एक नए अंदाज़ में परिभाषित किया है आप ने !
बेहतरीन!
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