राजगोपाल सिंह
वो रोज़-रोज़ मेरा इम्तिहान लेता है
कभी ज़मीन, कभी आसमान लेता है
ख़ुदा के बाद मुझे बस तू ही डराता है
तू सर झुका के मेरी बात मान लेता है
कहानी अपनी सुनाना मैं चाहता हूँ उसे
शह्र में आके कोई जब मकान लेता है
मैं जानता हूँ कि मुंसिफ़ का फ़ैसला क्या है
कहानी कुछ है मगर कुछ बयान लेता है
मैं धूप चाहूँ तो बादल बिखेर देगा वो
मैं छाँव मांगूँ मेरा सायबान लेता है
राजगोपाल सिंह
हज़ार वलवले उट्ठेंगे हम जहाँ होंगे
सफ़र में ऐसे कई बार इम्तिहां होंगे
मेरी ज़बान पे ख़ंजर अछालने वाले
मेरे सफ़र से जो गुज़रे तो हमज़बां होंगे
ये जातने तो उजाला न माँगते हरगिज़
जलेंगे दीप जहाँ मोम के मकां होंगे
मेरी निगाह से देखो तो देख पाओगे
गगन के पार कई और आसमां होंगे
उतर के देख समुन्दर में थाह ले तो ज़रा
कि तुझसे ऊँचे हिमालय कई वहाँ होंगे
नील
पहले
मेरे सिर पर
एक बैंगनी आकाश
फिर मेरी हथेली पर
बारिश की इक बूंद
और अब
मेरी हथेली पर है
बैंगनी आकाश!
नील
रात भर तम से जूझता है
लड़ता है अपने अस्तित्व के लिए
अपनी पहचान के लिए
पर कहाँ शिक़ायत करता है
आंधियों से, थपेड़ों से
और अंधियारों से
जो प्रयत्न करते हैं
दीप का अस्तित्व न रहे!
वह दीप है
बस जलता है
स्वयं के लिए
सब के लिए।
नील
मैं चांद से रूठा
कई दिन उसे देखा भी नहॅ
न उससे बात की
न उसके बारे में सोचा
ये भी न सोचा कि वो कैसा होगा
तनहा ही सफ़र काटता होगा रात का
या मुझे कहीं ढूंढता होगा ज़मीं पर
प्यासा होगा
या घिरा होगा
काले-काले बादलों से
क्यों देख्रू?
क्यों सोचूँ?
क्यों बात करूँ
मैं उस चांद की मानँ
या उसकी
जो मेरी ज़िन्दगी है
मेरी ज़िन्दगी ने मुझसे कहा
कि चांद निहारता है उसे रात-रात भर
झाँकता है
उसकी सुरमई
काली-काली ऑंखों में
काले-काले बादलों के पीछे से!
मैंने एक रात चांद से कह ही दिया
बड़ा छलिया है रे तू
प्रेयसी मेरी, तू निहारता क्यों है?
मेरे अधिकार क्षेत्र में तू आता क्यों है?
चांद मुस्कुराया और बोला-
”वाह रे वाह आदमी!
तू भी तो नहाता है
रात-रात भर मेरी चांदनी में
अंजुलियाँ भर-भर पीता है मेरी चांदनी को
और मेरी चांदनी की चादर सजाता है
अपनी प्रेयसी के लिए!
मैं कब रूठा?
रोज़ आता हूँ तुझसे मिलने
तेरी छत पर
देता हूँ तुझे
मौसम मिलन के
अब न आऊंगा
अब न बात करूंगा
पर एक बात बता
क्या तू रह पाएगा मेरे बिना?
तेरा प्रेम और तेरी प्रेयसी रह पाएगी
मेरी चांदनी की चादर के बिना….?
नील
एक छोटी-सी लड़की
अपना छोटा-सा जाल लेकर
नीला फ्रॉक पहने
रोज़ आती है नीले समन्दर के किनारे
डालती है जाल
चुनती है सीपियाँ
मटमैली, पीली, नीली
सफेद सीपियाँ!
उसे मोती भी मिलते हैं
वो फेंक देती है
क्योंकि उसे सिर्फ सीपियाँ चाहिएँ
कल वाली से सुन्दर कोई सीपी
नहीं जानती वो छोटी लड़की
कल वाली सीपी ज्यादा सुन्दर थी
या आज वाली
खींचती है जाल
तो कुछ ग़ुलाबी शंख
उभरते हैं उसके हाथों पर!
वो कल फिर आएगी
नीला फ्रॉक पहने
नीले समन्दर के किनारे
जाल डालेगी, मोती फेंकेगी
चुनेगी सीपियाँ
कल वाली से सुन्दर
कोई चमकती हुई
सुनहरी-सी सीपी।
नील
किसी देवता की
मासूम उदासी की तरह
वो मेरी ऑंखों में
कुछ ऐसे सजी है
जैसे मंदिर के अहाते में
बनी रंगोली में
सजा हो स्वास्तिक कोई!
पूरी प्रार्थना के साथ
जलता है आरती का दीया कोई।
किसी माथे पर दमकती है रोली
जिस पवित्रता के साथ
कोई बूढ़ा पूजारी बजाता है
काँपते हाथों से शंख
जिस आस्था के साथ।
वह मुझमें कुछ ऐसे ही बसी रही
जीवन भर!
यह भी सच है
जीवन भर उसे पाने की चाह
मेरे सामने यूँ ही खड़ी रही।
जैसे एक बालक खड़ा रहता है
मंदिर के द्वार पर
ऊँचे टंगे हुए
घण्टे को बजाने के लिए
नील
हर पल तुम लेती
एक नया आकार
एक नई गति
लहरों की तरह
मेरे अंतर में।
चाहती है सब कुछ समेटना
वापस लौटना
सागर के गर्भ में
जहाँ से
उसे पता है
फिर लौटना है वापस
फिर मिलना है रेत से
सीपियों से
बसना है उनके अंतर में
हमेशा-हमेशा और हमेशा के लिए
फिर भी तुम्हारी गति
तुम्हारा आकार
बनती है मेरी गति
मेरा आकार
मेरा अंतर।
नील
आजकल
समन्दर के किनारे चलते-चलते
जब कभी पीछे घूमता हूँ
मुड़ता हूँ
अपने ही पैरों के निशां
देखने के लिए
पर मिलते कहाँ हैं!
कोई आवारा लहर
मिटा देती है
मेरे क़दमों के निशां
कोई हवा का कुँआरा झोंका
उड़ा ले जाता है
मेरे चलने के निशां
फिर भी मैं चलता हूँ
अनवरत चलता हूँ
एक विश्वास लिए मन में
एक दिन
कर्म के हथौड़े
और मेहनत की छैनी से
गढूंगा वक़्त के सीने पर
कुछ ऐसे निशां
जिन्हें न हवा का डर होगा
न कुँआरे झोंकों का भय
वक़्त के सीने पर ये निशां
हमेशा जड़े रहेंगे
और वक़्त संजोकर रखेगा
अपने सीने में
मेरे चलने के निशां!
राजगोपाल सिंह
हमने ऐसा हादिसा पहले कभी देखा न था
पेड़ थे पेड़ों पे लेकिन एक भी पत्ता न था
ख़ुशनसीबों के यहाँ जलते थे मिट्टी के चराग़
था अंधेरा किन्तु तब इतना अधिक गहरा न था
तिर रही थी मछलियों की सैकड़ों लाशें मगर
जाल मछुआरों ने नदिया में कोई फेंका न था
आदमी तो आदमी था साँप भी इक बार को
दूध जिसका पी लिया उसको कभी डसता न था
ख़ून अपना ही हमें पानी लगेगा एक दिन
प्यास अपनी इस क़दर बढ़ जाएगी सोचा न था
राजगोपाल सिंह
छीनकर पलकों से तेरे ख़्वाब तक ले जाएगा
एक झोंका याद के सारे वरक ले जाएगा
वक्त इक दरिया है इसके साथ बहना सीख लो
वरना ये तुमको बहाकर बेझिझक ले जाएगा
रास्ते चालाक थे देते रहे हमको फ़रेब
यह सुरग ले जाएगा और वो नरक ले जाएगा
दूल्हा बनकर हर ख़ुशी के द्वार आँसू एक दिन
आएगा और मांग भर, करके तिलक ले जाएगा
किसको था मालूम मौसम का मुसाफ़िर लूट कर
तितलियों से रंग, फूलों से महक ले जाएगा
चिराग़ जैन
मैं अपने दिल के अरमानों को बहला लूँ तो मुश्क़िल है
अगर ख़ुद को किसी सूरत मैं समझा लूँ तो मुश्क़िल है
इधर दिल की तमन्ना है, उधर उनकी हिदायत है
नज़र फेरूँ तो मुश्क़िल है, नज़र डालूँ तो मुश्क़िल है
राजगोपाल सिंह
आँसुओं का ज़लज़ला अच्छा लगा
तपती आँखों को छुआ, अच्छा लगा
वो हमारे बीच रहकर भी न था
आईने का टूटना अच्छा लगा
अब के सावन में भी जाने क्यों हमें
बादलों का रूठना अच्छा लगा
आग बरसाती हुई उस धूप में
नीम का इक पेड़ था, अच्छा लगा
आंधियों के गाँव में आया नज़र
इक दीया जलता हुआ, अच्छा लगा
राजगोपाल सिंह
सिर्फ़ सन्नाटा सुलगता है यहाँ साँझ ढले
ताज़गी बख्श दे ऐसा कोई झोंका तो चले
गाँव के मीठे कुएँ पाट दिए क्यों हमने
इसका एहसास हुआ प्यास से जब होंठ जले
यूँ तो हर मोड़ पे मिलने को मिले लोग बहुत
धूप क्या तेज़ हुई साथ सभी छोड़ चले
ऑंख में चुभते हैं अब ये रुपहले मंज़र
दिल सुलगता है हरे पेड़ों की ज़ुल्फ़ों के तले
एक अरसे से भटकता हूँ गुलिस्तानों में
कोई काँटा तो मिले जिससे ये काँटा निकले
मैंने ज़िन्दगी देखी है
कविता, कुलदीप आज़ाद | Boasting, Feelings (2), Hasya (58), kuldeep (9), Laughter (26), Life (68), Lonliness, Pain (27), ख़लिश
कुलदीप आज़ाद
रोज़ रात सजती महफ़िलों में
अक्सर ख़ामोश तनहाई देखी है
सच कहूँ
मैंने ज़िन्दगी देखी है
फ़क़त हँसाना जिनका पेशा है
उनकी आँखों में नमी देखी है
सच कहूँ
मैंने ज़िन्दगी देखी है
इक जनाज़े को कंधा दिया एक दिन
क्या होती है किसी की कमी, देखी है
सच कहूँ
मैंने ज़िन्दगी देखी है
कल तमाम रात रोते हुए गुज़री
सुबह बिस्तर पे फ़िज़ा शबनमी देखी है
सच कहूँ
मैंने ज़िन्दगी देखी है
उन दिनों
जब मैं दर्द से तड़पता था
कई दिलों में सुकूँ
कई चेहरों पे हँसी देखी है॥
सच कहूँ
मैंने ज़िन्दगी देखी है
वो जो दुनिया को ख़ाक़ करने चले थे
जहाँ दबे हैं वे
वो ज़मीं देखी है
सच कहूँ
मैंने ज़िन्दगी देखी है
कुलदीप आज़ाद
बस मुहब्बत की मुझे ज़रूरत है
बेइंतहाँ आ के प्यार दे कोई
फिर दिल से रूख़सती को न कहना
चाहे सीने में खंज़र उतार दे कोई
माना तन्हा सही पर आज भी मैं जिंदा हूँ
आ के करीने से मुझको सँवार दे कोई
मेरे दिल की ज़मीं में आज भी गुलाब पलते हैं
खिलेगें, शर्त पहले प्यार की फुहार दे कोई
दिलों से खेलने को तूने अपना शौक़ कहा था
हैं दुआ ईश्क़ में तुझको करारी हार दे कोई
सिवाय बेवफ़ाई उम्र भर तूने दिया क्या
क्यों तेरी याद में जीवन गुज़ार दे कोई
मुझसे ज़्यादा भी कोई और तुम्हें चाहता है
ख़ुदा ये सुनने से पहले ही मार दे कोई
बहकेगें क़दम तेरे, संभालेगा मेरा कंधा
कहोगी उस दिन कि मुझ-सा यार दे कोई
उन्होंने अब तलक मुझको कभी क़ाबिल नहीं समझा
मेरे कंधों का उनको इक दिन आधा तो भार दे कोई
अनजाने में कई काम अधूरे छूटे
आज एक ज़िंदगी उधार दे कोई
है ख़्वाहिश आख़िरी साँस मेरी अटकी हो हलक़ में
वो मुझको चाहती थी ला के ऐसा तार दे कोई
गुज़रा हुआ कल लिखता हूँ
कुलदीप आज़ाद, मुक्तक | Ghazal (125), Hindi (604), Poem (324), Poet (397), Poetry (470), writer (4)
कुलदीप आज़ाद
नए ज़माने में गुज़रा हुआ कल लिखता हूँ
राज़ खुल जाए न, किरदार बदल लिखता हूँ
ठोकरों की चोट से, ये पाँव पत्थर हो गए
चोट के उन घावों पर, मैं यार ग़ज़ल लिखता हूँ
बावरे ये लोग
कविता, कुलदीप आज़ाद | Expression (2), Poet (397), Poetry (470), अभिव्यक्ति (7), कवि (25), दिलजला
कुलदीप आज़ाद
दिल्ली में नया था मैं
अपनी गली भूल गया
ख़ामख़्वाह ही लोग इसे
सिलसिला समझते हैं
दोस्तों की दास्तानों को
क़लम क्या दी मैंने
बावरे ये लोग
मुझे दिलजला समझते हैं
मांगता कैसे
कविता, कुलदीप आज़ाद | azad (6), kuldeep (9), love (138), Poetry (470), Sattire (174), मज़बूरी (3), ्कविता
कुलदीप आज़ाद
कई सवाल तेरे थे, कई सवाल मेरे थे
गुज़रते वक़्त से जवाब, मांगता कैसे
कई रातें हमने जागकर जो काटी थीं
रतजगी आँखों से ख़्वाब मांगता कैसे
मुझे पता था ज़माना ये दिन दिखाएगा
पर मुहब्बत का हिसाब मांगता कैसे
उनके किरदार का अहम हिस्सा है
उनके चेहरे का वो नक़ाब मांगता कैसे
उनकी ज़िंदगी के पन्नों में महक घोलता है
वो सुखा गुलाब, मांगता कैसे
सुबह से शाम तक सिर्फ़ अपने चर्चे थे
छिपाने को लिबास मांगता कैसे
तेरे लम्स की मदहोशी ही नहीं जाती
साक़ी तुझसे शराब मांगता कैसे
इबारतें जिसकी अपने ख़ूँ से लिखी थीं
ख़ुदा से वो किताब मांगता कैसे
मैं एक चांद पे मरता हूँ, जानते हैं सभी
इबादत में आफ़ताब मांगता कैसे
नज़रिया
कविता, कुलदीप आज़ाद | change (30), Hindi (604), Kavita (485), love (138), oetry, Poem (324), Time (7), नज़रिया (2)
कुलदीप आज़ाद
बस समंदर में समाने की सज़ा मुझको मिली
खो गया अस्तित्व मेरा, हुनर दरिया ना रहा
मैं वही; दर्पण जिसे तुमने कहा था एक दिन
अब तुम्हारे देखने का वो नज़रिया ना रहा
ज़िंदगी को अपनी शर्तों पे मैं क्या जीने चला
जी सकूंगा इस ज़माने में, भरोसा ना रहा
मैं सिकंदर-सा -यही तुमने कहा था एक दिन
अब तुम्हारे देखने का वो नज़रिया ना रहा
रोशनी कम होने न पाए तुम्हारी राह की
-बस इसी कोशिश में मेरे घर उजाला ना रहा
मैं वही; दीपक जिसे तुमने कहा था एक दिन
अब तुम्हारे देखने का वो नज़रिया ना रहा
मेरी आँखों में तुम्हारे ख़्वाब, तुम में मैं शुमार
जाने क्यों दरम्यां अपने वो सिलसिला ना रहा
मैं वही; धड़कन जिसे तुमने कहा था एक दिन
अब तुम्हारे देखने का वो नज़रिया ना रहा
जो लोग शहीदों की तरह मरते हैं
धनसिंह खोबा 'सुधाकर', मुक्तक | Balidan, Dhansingh (11), India (207), Militry (2), Patriotic (30), Sainik, Shaheed (14), Shshid
धनसिंह खोबा ‘सुधाकर’
जो लोग शहीदों की तरह मरते हैं
अहसान बड़ा मौत पे वो करते हैं
मरते न कभी लोग वे मरने पर भी
पुण्यों से ही दामन जो सदा भरते हैं
इन्सान ही रहना सीखो
धनसिंह खोबा 'सुधाकर', मुक्तक | Dhansingh (11), Humanity (21), Khoba (5), Life (68), Rubai (11), Sudhakar (8), wish (15)
धनसिंह खोबा ‘सुधाकर’
इन्सान हो, इन्सान ही रहना सीखो
हर बात सलीक़े से ही कहना सीखो
रखते हो तमन्ना जो ख़ुशी की तुम भी
जीवन में ग़मों को भी तो सहना सीखो
ख्वाबों को बनाना होगा
धनसिंह खोबा 'सुधाकर', मुक्तक | Dream (4), Heart (8), Hope (24), love (138), Rubai (11)
धनसिंह खोबा ‘सुधाकर’
टूटे हुए ख्वाबों को बनाना होगा
ज़ख्मों को ही अब दिल में सजाना होगा
मरहम की न फिर कोई ज़रूरत होगी
ज़ख्मों से ही बस दर्द मिटाना होगा
मंदिर में ही भगवान
धनसिंह खोबा 'सुधाकर', मुक्तक | Religion (8), Rubai (11), Sattire (174), truth (13)
धनसिंह खोबा ‘सुधाकर’
मंदिर में ही भगवान समझने वाले
होते नहीं सद्ज्ञान समझने वाले
भगवान तो रहता है सदा कण-कण में
यह बात समझते हैं समझने वाले
पानी में भी आग लगाना सीखो
धनसिंह खोबा 'सुधाकर', मुक्तक | Courage (3), Hindi (604), Impossible, Possible, Rubai (11)
धनसिंह खोबा ‘सुधाकर’
पानी में भी तुम आग लगाना सीखो
शोलों को हवाओं से बुझाना सीखो
मुमक़िन ही बने जिससे नामुमक़िन भी
तदबीर ‘सुधाकर’ वो बनाना सीखो
हर साँस को विश्वास बना
धनसिंह खोबा 'सुधाकर', मुक्तक | Hindi (604), Hope (24), Hopeless (2), Rubai (11)
धनसिंह खोबा ‘सुधाकर’
नैराश्य को जो आस बना लेते हैं
हर साँस को विश्वास बना लेते हैं
जीने की कला सिर्फ़ उन्हें आती है
हर दुख को भी जो हास बना लेते हैं
दर्द को सद्भाग्य समझ जीता है
धनसिंह खोबा 'सुधाकर', मुक्तक | Dhansingh (11), Hindi (604), Khoba (5), Pain (27), struggle (9), Sudhakar (8)
धनसिंह खोबा ‘सुधाकर’
जो दर्द को सद्भाग्य समझ जीता है
वह घाव को भी दर्द से ही सीता है
शिव का ही उसे रूप ‘सुधाकर’ समझो
विष को भी जो अमृत-सा समझ पीता है
धनसिंह खोबा ‘सुधाकर’
अनजान की पहचान बना देता है
ग़म को भी तो मुस्कान बना देता है
है प्यार का मधुमास ‘सुधाकर’ ऐसा
वीरान को उद्यान बना देता है
सत्य सनातन है कज़ा आएगी
धनसिंह खोबा 'सुधाकर', मुक्तक | Death (4), Philosophy (190), Spiritual, truth (13)
धनसिंह खोबा ‘सुधाकर’
वह वक्त क़ी ही ताँत से जीवन धुनता
साँसों से मनुज अपना कफ़न भी बुनता
यह सत्य सनातन है कज़ा आएगी
फिर भी तो न वह सत्य के पथ को चुनता
समदर्शी ही होता दर्पण
धनसिंह खोबा 'सुधाकर', मुक्तक | Hindi (604), mirror (2), Philosophy (190), Rubai (11), truth (13)
धनसिंह खोबा ‘सुधाकर’
हर हाल में समदर्शी ही होता दर्पण
दर्शक को ही अपने में समोता दर्पण
व्यवहार है सबसे ही निराला उसका
अपनत्व न अपना कभी खोता दर्पण
धनसिंह खोबा ‘सुधाकर’
कष्टों से ही जीवन का तो होता मंथन
घिसने पे अधिक देता है ख़ुश्बू चंदन
कठिनाई में ही सबकी परीक्षा होती
कंचन भी बने आग में तपकर कुंदन
दुर्भाव सभी मन से निकल जाएंगे
धनसिंह खोबा 'सुधाकर', मुक्तक | Dhansingh (11), Emotions (30), Friends, Hindi (604), Khoba (5), Rubai (11), Sudhakar (8)
धनसिंह खोबा ‘सुधाकर’
दुर्भाव सभी मन से निकल जाएंगे
जीवन में सभी व्यक्ति तुम्हें पाएंगे
तुम प्यार की नज़रों से सभी को देखो
दुश्मन भी तुम्हें दोस्त नज़र आएंगे
कब कौन कहाँ किसको भलाई देता
धनसिंह खोबा 'सुधाकर', मुक्तक | Dhansingh (11), Hindi (604), Life (68), Rubai (11), Self (10), Selfish
धनसिंह खोबा ‘सुधाकर’
कब कौन कहाँ किसको भलाई देता
अपनों में ही अपना न दिखाई देता
अपनत्व का मिलना तो हुआ है दुर्लभ
मतलब की ही इन्सान दुहाई देता
निज धर्म पे भाषा पे कोई लड़ता है
धनसिंह खोबा 'सुधाकर', मुक्तक | Dhansingh (11), Differences, Fight (2), Humanity (21), Peace (2)
धनसिंह खोबा ‘सुधाकर’
निज धर्म पे भाषा पे कोई लड़ता है
निज प्रांत की सीमा पे कोई अड़ता है
लड़ना औ झगड़ना यूँ इस कृत्रिमता पर
अविवेक मनुज का है, परम जड़ता है
लगता कि अबल जीवन है
धनसिंह खोबा 'सुधाकर', मुक्तक | Dhansingh (11), Hindi (604), Life (68), Panch tatva, Philosophy (190), Sudhakar (8)
धनसिंह खोबा ‘सुधाकर’
कष्टों में तो लगता कि अबल जीवन है
ख़ुशियों में लगे स्वच्छ कमल जीवन है
पहचान अलग सबके लिए जीवन की
जल, वायु, गगन, मिट्टी, अनल जीवन है
मानव न अभी तक चेता
धनसिंह खोबा 'सुधाकर', मुक्तक | Dhansingh (11), Life (68), Philosophy (190), Sudhakar (8)
धनसिंह खोबा ‘सुधाकर’
इस तथ्य से मानव न अभी तक चेता
जीवन ही तो मानव को है जीवन देता
अनमोल है जीवन तो सभी का जग में
क्यों कोई किसी का कभी जीवन लेता
दर्द सज़ा देता है
धनसिंह खोबा 'सुधाकर', मुक्तक | Dhansingh (11), Pain (27), Relax, Rubai (11), Sudhakar (8)
धनसिंह खोबा ‘सुधाकर’
इन्सां को कोई दर्द सज़ा देता है
बेदर्द कोई दर्द कज़ा देता है
हर दर्द का किरदार है अपना-अपना
मीठा-सा कोई दर्द मज़ा देता है
तू अग्नि, सलिल और अनिल भी चंचल
धनसिंह खोबा 'सुधाकर', मुक्तक | Dhansingh (11), Khoba (5), Life (68), Rubai (11), Spiritualism (11), Sudhakar (8)
धनसिंह खोबा ‘सुधाकर’
तू अग्नि, सलिल और अनिल भी चंचल
रस, रंग तू मकरंद, कमल भी शतदल
तुझसे ही चमकते हैं ‘सुधाकर’ दिनकर
तू सत्य भी, शिव भी है तू सुन्दर अविकल
अकाउंटिंग के अध्यापक का प्रेम पत्र
अरुण मित्तल 'अद्भुत', कविता | accounts, Hasya (58), Kavita (485), Laughter (26), love letter, प्रेम-पत्र, लेखा, हास्य (8)
अरुण मित्तल ‘अद्भुत’
नए-नए अकाउंटिंग के प्राध्यापक
स्वयं के प्यार में हिसाब-किताब भर बैठे
और उसी से प्रभावित होकर ये ग़लती कर बैठे
कि सारा का सारा मसाला
दिल की बजाय, दिमाग़ से निकाला
और ये पत्र लिख डाला
लिखा था-
प्रिये! मैं जब भी तुमसे मिलता हूँ
“शेयर प्रीमियम” की तरह खिलता हूँ
सचमुच तुमसे मिलकर यूँ लगता है
गुलशन में नया फूल खिल गया
या यूँ कहूँ
किसी उलझे हुए सवाल की
“बैलेंस शीट” का टोटल मिल गया
मेरी जान
जब तुम शरमाती हो
मुझे “प्रोफिट एंड लॉस” के
“क्रेडिट बैलेंस” सी नज़र आती हो
तुम्हारा वो “इन्कम टैक्स ऑफिसर” भाई
जो इकतीस मार्च की तरह आता है
मुझे बिल्क़ुल नहीं भाता है
उसकी शादी करवाकर घर बसवाओ
वरना घिस-घिस कर इतना पछताएगा
एक दिन “बैड डेब्ट” हो जाएगा
और कुछ मुझे भी संभालो
“फिक्सड असेट” के तरह ज़िन्दगी में ढालो
अपने “स्क्रैप वैल्यू” के नज़दीक आते माँ-बाप को समझाओ
किसी तरह भी मुझे उनसे मिलवाओ
उन्हें कहो तुम्हें किस बात का रोना है
तुम्हारा दामाद तो खरा सोना है
और तुम्हारा पड़ोसी पहलवान
जो बेवक़्त हिनहिनाता है
उसे कहो
मुझे “लाइव स्टॉक” अकाउंट बनाना भी आता है
“हायर अकाउंटिंग” की किताब की तरह मोटी
और उसके अक्षरों की तरह काली
वो मेरी होने वाली साली
जब भी मुस्कुराती है
मुझे “रिस्की इनवेस्टमेंट” पर
“इंट्रेस्ट रेट” सी नज़र आती है
सच में प्रिये
दिल में गहराई तक उतर जाती हो
जब तुम “सस्पेंस अकाउंट” की तरह
मेरे सपनों में आती हो
ये पत्र नहीं
मेरी धड़कने तुम्हारे साथ में हैं
अब मेरे प्यार का डेबिट-क्रेडिट तुम्हारे हाथ में है
ये यादें और ख़्वाब जब मदमाते हैं
तो ज़िन्दगी के “ट्रायल बैलेंस”
बड़ी मुश्क़िल से संतुलन में आते हैं
मैं जानता हूँ
मुझसे दूर रहकर तुम्हारा दिल भी कुछ कहता है
मेरे हर आँसू का हिसाब
तुम्हारी “कैश बुक” में रहता है
और गिले-शिक़वे तो हम उस दिन मिटाएंगे
जिस दिन प्यार का
“रिकांसिलेशन स्टेटमेंट” बनाएंगे
और हाँ
तुम मुझे यूँ ही लगती हो सही
तुम्हे किसी “विण्डो ड्रेसिंग” की ज़रूरत नहीं
मुझे लगता है
तुम्हारा ज़ेह्न किसी और आशा में होगा
“ऑडिटिंग” सीख रहा हूँ
अगला ख़त और भी भाषा में होगा
मैंने “स्लिप सिस्टम” की पद्धति
दिमाग़ में भर ली है
और तुम्हारे कॉलेज टाइम में लिखे
एक सौ पच्चीस लव लेटर्स की
“ऑडिटिंग” शुरू कर दी है
अब समझी !
मैं तुम्हारी जुदाई से
“इन्सोल्वैन्सी” की तरह डरता हूँ
मेरी जान
मैं तुम्हें “बोनस शेयर” से भी ज़्यादा प्यार करता हूँ
तुम्हारी यादों में मदहोश होकर
जब भी बोर्ड पर लिखने के लिए चॉक उठाता हूँ
“लेज़र के परफ़ोर्मा” की जगह
तुम्हारी तस्वीर बना आता हूँ
मैं तुम्हारे अन्दर अब इतना खो गया हूँ
“नॉन परफोर्मिंग असेट” हो गया हूँ
अब पत्र बंद करता हूँ
कुछ ग़लत हो
तो “अपवाद के सिद्धांत” को अपनाना
कुछ नाजायज़ हो
तो “मनी मैजरमेंट” से परे समझकर भूल जाना
“कंसिसटेंसी” ही जीवन का आधार होता है
और ज़िन्दा वही रहते हैं
जिन्हें किसी से प्यार होता है
तुम निश्चिन्त रहना
किशन सरोज, गीत | Faith (3), Kavita (485), love (138), Pain (27), कविता (62), किशन (2), गीत (18), प्रेम (143), वियोग (59), विरह (5), सरोज (2), हिंदी (24)
किशन सरोज
कर दिए लो आज गंगा में प्रवाहित
सब तुम्हारे पत्र, सारे चित्र, तुम निश्चिन्त रहना
धुंध डूबी घाटियों के इंद्रधनुष
छू गए नत भाल पर्वत हो गया मन
बूंद भर जल बन गया पूरा समंदर
पा तुम्हारा दुख तथागत हो गया मन
अश्रु जन्मा गीत कमलों से सुवासित
यह नदी होगी नहीं अपवित्र, तुम निश्चिन्त रहना
दूर हूँ तुमसे न अब बातें उठें
मैं स्वयं रंगीन दर्पण तोड़ आया
वह नगर, वे राजपथ, वे चौंक-गलियाँ
हाथ अंतिम बार सबको जोड़ आया
थे हमारे प्यार से जो-जो सुपरिचित
छोड़ आया वे पुराने मित्र, तुम निश्चिंत रहना
लो विसर्जन आज वासंती छुअन का
साथ बीने सीप-शंखों का विसर्जन
गुँथ न पाए कनुप्रिया के कुंतलों में
उन अभागे मोर पंखों का विसर्जन
उस कथा का जो न हो पाई प्रकाशित
मर चुका है एक-एक चरित्र, तुम निश्चिंत रहना
नदिया के किनारे
किशन सरोज, गीत | Emotions (30), Hindi (604), Hindi kavita (167), kishan saroj, love (138), Pain (27), Relations (12)
किशन सरोज
फिर लगा प्यासे हिरण को बाण
नदिया के किनारे
बाण लगते ही सघन वन, दूधिया मरुथल हुआ
थरथराईं घाटियाँ, हर ओर कोलाहल हुआ
प्यास का बुझना नहीं आसान
नदिया के किनारे
भर छलांगें ऑंख ओझल, हिरणियों का दल हुआ
कौन पूछे, तन हुआ घायल कि मन घायल हुआ
बहुत घबराए अकेले प्राण
नदिया के किनारे
रोशनी मुझसे मिलेगी
गीत, राम अवतार त्यागी | Challange (4), self confidence (4), आत्मविश्वास (24), उम्मीद (12), दीपक, संभावना
राम अवतार त्यागी
इस सदन में मैं अकेला ही दिया हूँ
मत बुझाओ!
जब मिलेगी, रोशनी मुझसे मिलेगी!
पाँव तो मेरे थकन ने छील डाले
अब विचारों के सहारे चल रहा हूँ
ऑंसुओं से जन्म दे-देकर हँसी को
एक मंदिर के दिए-सा जल रहा हूँ
मैं जहाँ धर दूँ क़दम वह राजपथ है
मत मिटाओ!
पाँव मेरे देखकर दुनिया चलेगी!
बेबसी, मेरे अधर इतने न खोलो
जो कि अपना मोल बतलाता फिरूँ मैं
इस क़दर नफ़रत न बरसाओ नयन से
प्यार को हर गाँव दफ़नाता फिरूँ मैं
एक अंगारा गरम मैं ही बचा हूँ
मत बुझाओ!
जब जलेगी, आरती मुझसे जलेगी!
जी रहे हो जिस कला का नाम लेकर
कुछ पता भी है कि वह कैसे बची है
सभ्यता की जिस अटारी पर खड़े हो
वह हमीं बदनाम लोगों ने रची है
मैं बहारों का अकेला वंशधर हूँ
मत सुखाओ!
मैं खिलूंगा तब नई बग़िया खिलेगी!
शाम ने सबके मुखों पर रात मल दी
मैं जला हूँ तो सुबह लाकर बुझूंगा
ज़िन्दगी सारी गुनाहों में बिताकर
जब मरूंगा, देवता बनकर पुजूंगा
ऑंसुओं को देखकर, मेरी हँसी तुम
मत उड़ाओ!
मैं न रोऊँ तो शिला कैसे गलेगी!
दुख और सुख
गीत, सुरेन्द्र कुमार जैन | dukh, Pain (27), Philosophy (190), surendra kumar jain, जीवन (61), दर्शन (119), दुख (10), सुख (3), सुरेन्द्र कुमार जैन
सुरेन्द्र कुमार जैन
दुख-दर्द सभी अपने हैं, सुख अनदेखे सपने हैं
फिर सुख-संध्या के लाल क्षितिज का क्यों अभिमान करूँ
क्यों दुख का अपमान करूँ
दुख वह ज्वाला जिसमें जलकर जीवन कुंदन हो जाता है
सुख वह बाला जिसके मद में यौवन बंधन हो जाता है
फिर सुख बाला के शृंगारों का क्यों अरमान करूँ
क्यों दुख का अपमान करूँ
दुख में तो जीवन पथ पर पुरुषार्थ चमकने लगता है
सुख के भोगों में रत रह कर इंसान भटकने लगता है
फिर सुख व्यसनों की चकाचौंध का क्यों सम्मान करूँ
क्यों दुख का अपमान करूँ
दुख में ही भेद नज़र आता अपने का और पराए का
सुख में तो पर्दा रहता है, ऑंखों पर झूठे साए का
फिर दुख की छोड़ कसौट मैं सुख का क्यों अनुमान करूँ
क्यों दुख का अपमान करूँ
याद तुम्हारी आई सारी रात
गीत, रमानाथ अवस्थी | love (138), नींद, प्रेम (143), याद (46), रमानाथ अवस्थी, वियोग्
रमानाथ अवस्थी
सो न सका कल याद तुम्हारी आई सारी रात
और पास ही कहीं बजी शहनाई सारी रात
मेरे बहुत चाहने पर भी नींद न मुझ तक आई
ज़हर भरी जादूगरनी-सी मुझको लगी जुन्हाई
मेरा मस्तक सहला कर बोली मुझसे पुरवाई
दूर कहीं दो ऑंखें भर-भर आईं सारी रात
गगन बीच रुक तनिक चन्द्रमा लगा मुझे समझाने
मनचाहा मन पा जाना है खेल नहीं दीवाने
और उसी क्षण टूटा नभ से एक नखत अनजाने
देख जिसे तबियत मेरी घबराई सारी रात
रात लगी कहने सो जाओ, देखो कोई सपना
जग ने देखा है बहुतों का, रोना और तड़पना
यहाँ तुम्हारा क्या, कोई भी नहीं किसी का अपना
समझ अकेला मौत तुझे ललचाई सारी रात
मुझे सुलाने की कोशिश में, जागे अनगिन तारे
लेकिन बाज़ी जीत गया मैं वे सब के सब हारे
जाते-जाते चांद कह गया मुझसे बड़े सकारे
एक कली मुरझाने को मुस्काई सारी रात
आशा कम, विश्वास बहुत है
गीत, बलबीर सिंह 'रंग' | Balbir Singh Rang, Faith (3), Hope (24), love (138), wish (15), प्रेम (143), बलबीर सिंह 'रंग', वियोग (59)
बलबीर सिंह ‘रंग’
जाने क्यों तुमसे मिलने की
आशा कम, विश्वास बहुत है
सहसा भूली याद तुम्हारी
उर में आग लगा जाती है
विरहातप में मधुर-मिलन के
सोए मेघ जगा जाती है
मुझको आग और पानी में
रहने का अभ्यास बहुत है
धन्य-धन्य मेरी लघुता को
जिसने तुम्हें महान बनाया
धन्य तुम्हारी स्नेह-कृपणता
जिसने मुझे उदार बनाया
मेरी अन्ध भक्ति को केवल
इतना मन्द प्रकाश बहुत है
अगणित शलभों के दल के दल
एक ज्योति पर जल कर मरते
एक बूंद की अभिलाषा में
कोटि-कोटि चातक तप करते
शशि के पास सुधा थोड़ी है
पर चकोर को प्यास बहुत है
मैंने ऑंखें खोल देख ली
है नादानी उन्मादों की
मैंने सुनी और समझी है
कठिन कहानी अवसादों की
फिर भी जीवन के पृष्ठों में
पढ़ने को इतिहास बहुत है
ओ! जीवन के थके पखेरू
बढ़े चलो हिम्मत मत हारो
पंखों में भविष्य बंदी है
मत अतीत की ओर निहारो
क्या चिंता धरती यदि छूटी
उड़ने को आकाश बहुत है
कसमसाई देह फिर चढ़ती नदी की
किशन सरोज, गीत | Kishan (2), Life (68), Philosophy (190), relation (11), Saroj (5), किशन (2), संबंध (78), सरोज (2)
किशन सरोज
कसमसाई देह फिर चढ़ती नदी की
देखिए तटबंध कितने दिन चले
मोह में अपनी मंगेतर के
समंदर बन गया बादल
सीढियाँ वीरान मंदिर की
लगा चढ़ने घुमड़ता जल
काँपता है धार से लिप्त हुआ पुल
देखिए सम्बन्ध कितने दिन चले
फिर हवा सहला गई माथा
हुआ फिर बावला पीपल
वक्ष से लग घाट के रोई
सुबह तक नाव हो पागल
डबडबाए दो नयन फिर प्रार्थना के
देखिए सौगंध कितने दिन चले
फिर बापू भी खुश होते
कविता, दीपक चौरसिया 'मशाल' | India (207), Mahatma Gandhi, Mohandas Karamchand Gandhi, Values
दीपक चौरसिया ‘मशाल’
और हम बहुत खुश हैं
कि अब फिर से
वो सब हिन्दोस्तान की अमानत हैं-
एक ऐनक
एक घड़ी
और कुछ भूला-बिसरा सामान
हमें प्यार है
इन सामानों से
क्योंकि ये बापू की दिनचर्या का हिस्सा थे
पर ऐसा करने से पहले
दिल में बैठे बापू से
एक मशविरा जो कर लेते
तो बापू भी ख़ुश होते
ये वो ऐनक है
जिससे बापू सब साफ़ देखते थे
पर हम नहीं देख सकते साफ़
इससे भी
इससे हमें दिखेंगे
मगर दिखेंगे हिन्दू
दिखेंगे मुसलमान
दिखेंगे सवर्ण
दिखेंगे हरिजन
दिखेगी औरत
दिखेगा मर्द
दिखेगा अमीर
दिखेगा ग़रीब
दिखेगा देशी और विदेशी
मगर शायद
बापू इसी ऐनक से
इंसान देखते थे
और बापू के आदर्शों कि बोली
‘एक पैसा’ भी लगा पाते
तो बापू भी ख़ुश होते
हम ले आए वो घड़ी
जिसमें समय देखते थे बापू
शायद अभी भी दिखें उसमें
बारह, तीन, छः और नौ
हम देखते हैं
सिर्फ़ आँकड़े
पर क्या बापू यही देखते थे?
…या वो देखते थे
बचा समय
बुरे समय का?
और कितना है समय
आने में अच्छा समय
वो चाहते थे बताना
चलना साथ समय के
पर जो हम
बापू के उपदेशों की घड़ियाँ
एक पैसे में भी पा लेते
तो बापू भी ख़ुश होते
जिसने दीनों की ख़ातिर
इक पट ओढ़
बिता दिया जीवन
उसके सामानों की गठरी
हम नौ करोड़ में ले आए
और हम बहुत ख़ुश हैं
जो उस नौ करोड़ से मिल जाती रोटी
बापू के दीनों-प्यारों को
तो बापू भी ख़ुश होते
जो बापू के सामानों से ज़्यादा
करते बापू से प्यार
सच्चाई की राह स्वीकार
तो बापू भी ख़ुश होते
अभी हम हैं
फिर बापू भी ख़ुश होते
मुझे फिर भी तेरी ज़रुरत है
कविता, दीपक चौरसिया 'मशाल' | Hindi (604), M, Mother (12), Need (2), Poetry (470), दीपक चौरसिया 'मशाल'
दीपक चौरसिया ‘मशाल’
यहाँ सब बहुत ख़ूबसूरत है
पर माँ,
मुझे फिर भी तेरी ज़रूरत है
आसमान नीला है
नीले श्याम की तरह
और बहुत सारी है हरियाली
यहाँ तो पत्ते भी पतझड़ के रंग-बिरंगे होते हैं
और मिट्टी भी इनके आंगन की
सुन्दरता की मूरत है
पर माँ,
मुझे फिर भी तेरी ज़रूरत है
सुन्दर होता है उजियारा
दर सुन्दर, दीवारें भी
प्यारी है चिड़ियों की बोली
बच्चे हैं फूलों के जैसे
और फूल इन्द्रधनुष जैसे
घर हों या बाज़ार हों
सबकी चमकीली-सी सूरत है
पर माँ,
मुझे फिर भी तेरी ज़रुरत है
जन जन की भाषा हो हिंदी
अरुण मित्तल 'अद्भुत', कविता | Hindi (604), India (207), Language (3), Mother Tongue, जनभाषा, हिंदी (24)
अरुण मित्तल ‘अद्भुत’
हर शब्द अटल निर्माण करे
नवयुग की आशा हो हिंदी
हर मन की भाषा हो हिंदी
जन-जन की भाषा हो हिंदी
पर जाने क्यों जब कहता हूँ
हिंदी को भाषा जन-जन की
तब बरबस ही उठ जाती है
एक दबी हुई पीड़ा मन की
अंग्रेजी महलों में सोती
इसकी ही बढ़ी पिपासा है
झोंपड़ियों में जो रहती है
हिंदी निर्धन की भाषा है
हिंदी में नींद नहीं आती
सपने भी लो अंग्रेजी में
अंग्रेजीमय बस हो जाओ
खाओ-खेलो अंग्रेजी में
है दौड़ लगी अंग्रेजी पर
हिंदी बस रोए दुखड़ा है
अंग्रेजी नोट है डॉलर का
हिंदी कागज़ का टुकड़ा है
अंग्रेजी मक्खन ब्रैड और
खस्ता मुर्गे की बोटी है
जबरन जो भरती पेट सदा
हिंदी वो सूखी रोटी है
हर शिक्षा कर दी अंग्रेजी
कण-कण में भर दी अंग्रेजी
खेतों में डाली अंग्रेजी
आंगन में पाली अंग्रेजी
बस मन समझाने की ख़ातिर
इक हिंदी दिवस मनाते हैं
हिंदी को ही अपनाना है
यह कहकर दिल बहलाते हैं
हम पाल रहे बचपन अपना
अंग्रेजी की घुट्टी लेकर
हिंदी का मान बढ़ाते हैं
अंग्रेजी में भाषण देकर
अब तो तुतलाते स्वर को भी
अंग्रेजी की अभिलाषा है
अंग्रेजी बोले वह शिक्षित
हिंदी अनपढ़ की भाषा है
सब भाग रहे मदहोश हुए
सब सीख रहे हैं अंग्रेजी
हिंदी लिबास को छोड़ दिया
सब दीख रहे हैं अंग्रेजी
यह आज प्रतिष्ठा सूचक हैं
हम अंग्रेजी में बात करें
हिंदी है पिछड़ों की भाषा
ना हिंदी-भाषी साथ रखें
क़ानून समूचा अंग्रेजी
शिक्षा में छाई अंग्रेजी
चाहे हिंदी अध्यापक हो
उसको भी भाई अंग्रेजी
अपनी भाषा कहते हैं तो
हिंदी को मान दिलाना है
बस नाम नहीं देना केवल
सच्चा सम्मान दिलाना है
भारत में जब हर कागज़ पर
हिंदी में लिक्खा जाएगा
उस दिन ही हर भारतवासी
हाँ हिंदी दिवस मनाएगा
आँखों में आँसू मत रखना
करने की अभिलाषा रखना
निज क़लम और अधरों पर बस
केवल हिंदी भाषा रखना
फिर से आवाज़ लगाता हूँ
नवयुग की आशा हो हिंदी
बस केवल यही पुकार मेरी
जन-जन की भाषा हो हिंदी
प्यार तुम्हें दे सकता हूँ
उदय प्रताप सिंह, गीत | Hindi (604), Kavita (485), love (138), Poetry (470), uday pratap singh, उदय प्रताप सिंह
उदय प्रताप सिंह
मैं धन से निर्धन हूँ पर मन का राजा हूँ
तुम जितना चाहो प्यार तुम्हें दे सकता हूँ
मन तो मेरा भी चाहा करता है अक्सर
बिखरा दूँ सारी ख़ुशी तुम्हारे आंगन में
यदि एक रात मैं नभ का राजा हो जाऊँ
रवि, चांद, सितारे भरूँ तुम्हारे दामन में
जिसने मुझको नभ तक जाने में साथ दिया
वह माटी की दीवार तुम्हें दे सकता हूँ
तुम जितना चाहो प्यार तुम्हें दे सकता हूँ
मुझको गोकुल का कृष्ण बना रहने दो प्रिये!
मैं चीर चुराता रहूँ और शर्माओ तुम
वैभव की वह द्वारका अगर मिल गई मुझे
सन्देश पठाती ही न कहीं रह जाओ तुम
तुमको मेरा विश्वास संजोना ही होगा
अंतर तक हृदय उधार तुम्हें दे सकता हूँ
तुम जितना चाहो प्यार तुम्हें दे सकता हूँ
मैं धन के चन्दन वन में एक दिवस पहुँचा
मदभरी सुरभि में डूबे सांझ-सकारे थे
पर भूमि प्यार की जहाँ ज़हर से काली थी
हर ओर पाप के नाग कुंडली मारे थे
मेरा भी विषधर बनना यदि स्वीकार करो
वह सौरभ युक्त बयार तुम्हें दे सकता हूँ
तुम जितना चाहो प्यार तुम्हें दे सकता हूँ
काँटों के भाव बिके मेरे सब प्रीती-सुमन
फिर भी मैंने हँस-हँसकर है वेदना सही
वह प्यार नहीं कर सकता है, व्यापार करे
है जिसे प्यार में भी अपनी चेतना रही
तुम अपना होश डूबा दो मेरी बाँहों में
मैं अपने जन्म हज़ार तुम्हें दे सकता हूँ
तुम जितना चाहो प्यार तुम्हें दे सकता हूँ
द्रौपदी दाँव पर जहाँ लगा दी जाती है
सौगंध प्यार की, वहाँ स्वर्ण भी माटी है
कंचन के मृग के पीछे जब-जब राम गए
सीता ने सारी उम्र बिलखकर काटी है
उस स्वर्ण-सप्त लंका में कोई सुखी न था
श्रम-स्वेद जड़ित गलहार तुम्हें दे सकता हूँ
तुम जितना चाहो प्यार तुम्हें दे सकता हूँ
मैं अपराधी ही सही जगत् के पनघट पर
आया ही क्यों मैं सोने की ज़ंजीर बिना
लेकिन तुम ही कुछ और न लौटा ले जाना
यह रूप गगरिया कहीं प्यार के नीर बिना
इस पनघट पर तो धन-दौलत का पहरा है
निर्मल गंगा की धार तुम्हें दे सकता हूँ
तुम जितना चाहो प्यार तुम्हें दे सकता हूँ
उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से
कुँवर बेचैन, गीत | bechain (2), Geet (166), Hindi (604), love (138), Poem (324), Poetry (470), अनुभूति (2), अहसास (92), प्रेम (143), मिलन (7), वियोग (59), संवेदना (149)
कुँवर बेचैन
जितनी दूर नयन से सपना
जितनी दूर अधर से हँसना
बिछुए जितनी दूर कुँआरे पाँव से
उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से
हर पुरवा का झोंका तेरा घुँघरू
हर बादल की रिमझिम तेरी भावना
हर सावन की बूंद तुम्हारी ही व्यथा
हर कोयल की कूक तुम्हारी कल्पना
जितनी दूर ख़ुशी हर ग़म से
जितनी दूर साज सरगम से
जितनी दूर पात पतझर का छाँव से
उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से
हर पत्ती में तेरा हरियाला बदन
हर कलिका के मन में तेरी लालिमा
हर डाली में तेरे तन की झाइयाँ
हर मंदिर में तेरी ही आराधना
जितनी दूर प्यास पनघट से
जितनी दूर रूप घूंघट से
गागर जितनी दूर लाज की बाँह से
उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से
कैसे हो तुम, क्या हो, कैसे मैं कहूँ
तुमसे दूर अपरिचित फिर भी प्रीत है
है इतना मालूम की तुम हर वस्तु में
रहते जैसे मानस् में संगीत है
जितनी दूर लहर हर तट से
जितनी दूर शोख़ियाँ लट से
जितनी दूर किनारा टूटी नाव से
उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से
ओ वासंती पवन हमारे घर आना!
कुँवर बेचैन, गीत | bechain (2), invitation (2), love (138), vasant, अहसास (92), दर्द (60), निमंत्रण, प्रेम (143), याद (46), वसंत (2)
कुँवर बेचैन
बहुत दिनों के बाद खिड़कियाँ खोली हैं
ओ वासंती पवन हमारे घर आना!
जड़े हुए थे ताले सारे कमरों में
धूल भरे थे आले सारे कमरों में
उलझन और तनावों के रेशों वाले
पुरे हुए थे जले सारे कमरों में
बहुत दिनों के बाद साँकलें डोली हैं
ओ वासंती पवन हमारे घर आना!
एक थकन-सी थी नव भाव तरंगों में
मौन उदासी थी वाचाल उमंगों में
लेकिन आज समर्पण की भाषा वाले
मोहक-मोहक, प्यारे-प्यारे रंगों में
बहुत दिनों के बाद ख़ुशबुएँ घोली हैं
ओ वासंती पवन हमारे घर आना!
पतझर ही पतझर था मन के मधुबन में
गहरा सन्नाटा-सा था अंतर्मन में
लेकिन अब गीतों की स्वच्छ मुंडेरी पर
चिंतन की छत पर, भावों के आँगन में
बहुत दिनों के बाद चिरैया बोली हैं
ओ वासंती पवन हमारे घर आना!
जा तुझको भी नींद न आए
गीत, भारत भूषण | Bharat Bhushan (2), Geet (166), Kavita (485), love (138), Poem (324), Poetry (470), प्रेम (143), भारत भूषण, वियोग (59), विरह (5)
भारत भूषण
मेरी नींद चुराने वाले, जा तुझको भी नींद न आए
पूनम वाला चांद तुझे भी सारी-सारी रात जगाए
तुझे अकेले तन से अपने, बड़ी लगे अपनी ही शैय्या
चित्र रचे वह जिसमें, चीरहरण करता हो कृष्ण-कन्हैया
बार-बार आँचल सम्भालते, तू रह-रह मन में झुंझलाए
कभी घटा-सी घिरे नयन में, कभी-कभी फागुन बौराए
मेरी नींद चुराने वाले, जा तुझको भी नींद न आए
बरबस तेरी दृष्टि चुरा लें, कंगनी से कपोत के जोड़े
पहले तो तोड़े गुलाब तू, फिर उसकी पंखुडियाँ तोड़े
होठ थकें ‘हाँ’ कहने में भी, जब कोई आवाज़ लगाए
चुभ-चुभ जाए सुई हाथ में, धागा उलझ-उलझ रह जाए
मेरी नींद चुराने वाले, जा तुझको भी नींद न आए
बेसुध बैठ कहीं धरती पर, तू हस्ताक्षर करे किसी के
नए-नए संबोधन सोचे, डरी-डरी पहली पाती के
जिय बिनु देह नदी बिनु वारी, तेरा रोम-रोम दुहराए
ईश्वर करे हृदय में तेरे, कभी कोई सपना अँकुराए
मेरी नींद चुराने वाले, जा तुझको भी नींद न आए
दीपक जलता रहा रात भर
गीत, गोपाल सिंह 'नेपाली' | darshan (4), Gopal singh Nepali (4), Hindi (604), Life (68), Philosophy (190), गोपाल सिंह 'नेपाली' (4), जीवन दर्शन (40), हिंदी (24)
गोपाल सिंह ‘नेपाली’
तन का दिया
प्राण की बाती
दीपक जलता रहा रात भर
दुख की घनी बनी अंधियारी
सुख के टिमटिम दूर सितारे
उठती रही पीर की बदली
मन के पंछी उड़-उड़ हारे
बची रही प्रिय की आँखों से
मेरी कुटिया एक किनारे
मिलता रहा स्नेह रस थोड़ा
दीपक जलता रहा रात भर
दुनिया देखी भी अनदेखी
नगर न जाना, डगर न जानी
रंग न देखा, रूप न देखा
केवल बोली ही पहचानी
कोई भी तो साथ नहीं था
साथी था आँखों का पानी
सूनी डगर, सितारे टिम-टिम
पंथी चलता रहा रात भर
अगणित तारों के प्रकाश में
मैं अपने पथ पर चलता था
मैंने देखा; गगन-गली में
चांद सितारों को छलता था
आंधी में, तूफानों में भी
प्राणदीप मेरा जलता था
कोई छली खेल में मेरी
दिशा बदलता रहा रात भर
मेरे प्राण मिलन के भूखे
ये आँखें दर्शन की प्यासी
चलती रहीं घटाएँ काली
अम्बर में प्रिय की छाया-सी
श्याम गगन से नयन जुदाए
जगा रहा अंतर का वासी
काले मेघों के टुकड़ों से
चांद निकलता रहा रात भर
छिपने नहीं दिया फूलों को
फूलों के उड़ते सुवास ने
रहने नहीं दिया अनजाना
शशि को शशि के मंद ह्रास ने
भरमाया जीवन को दर-दर
जीवन की ही मधुर आस ने
मुझको मेरी आँखों का ही
सपना छलता रहा रात भर
होती रही रात भर चुप के
आँख-मिचौली शशि-बादल में
लुकते-छिपते रहे सितारे
अम्बर के उड़ते आँचल में
बनती-मिटती रहीं लहरियाँ
जीवन की यमुना के जल में
मेरे मधुर-मिलन का क्षण भी
पल-पल टलता रहा रात भर
सूरज को प्राची में उठ कर
पश्चिम ओर चला जाना है
रजनी को हर रोज़ रात भर
तारक दीप जला जाना है
फूलों को धूलों में मिल कर
जग का दिल बहला जाना है
एक फूँक के लिए प्राण का
दीप मचलता रहा रात भर
देवल आशीष
मुस्कुरा कर मुझे यूँ न देखा करो
मृगशिरा-सा मेरा मन दहक जाएगा
चांद का रूप चेहरे पे उतरा हुआ
सूर्य की लालिमा रेशमी गाल पर
देह ऐसी कि जैसे लहरती नदी
मर मिटें हिरनियाँ तक सधी चाल पर
हर डगर पर संभल कर बढ़ाना क़दम
पैर फिसला, कि यौवन छलक जाएगा
मुस्कुरा कर मुझे यूँ न देखा करो
मृगशिरा-सा मेरा मन दहक जाएगा
तुम बनारस की महकी हुई भोर हो
या मेरे लखनऊ की हँसी शाम हो
कह रही है मेरे दिल की धड़कन, प्रिये!
तुम मेरे प्यार के तीर्थ का धाम हो
रूप की मोहिनी ये झलक देखकर
लग रहा है कि जीवन महक जाएगा
मुस्कुरा कर मुझे यूँ न देखा करो
मृगशिरा-सा मेरा मन दहक जाएगा
अक्षर-अक्षर चूम लिया
गीत, देवल आशीष | Geet (166), Hindi (604), Holy, love (138), Poetry (470), गीत (18), देवल (5), पवित्र (2), प्रेम (143), वियोग (59), हिंदी (24)
देवल आशीष
प्रिये तुम्हारी सुधि को मैंने यूँ भी अक्सर चूम लिया
तुम पर गीत लिखा फिर उसका अक्षर-अक्षर चूम लिया
मैं क्या जानूँ मंदिर-मस्जिद, गिरिजा या गुरुद्वारा
जिन पर पहली बार दिखा था अल्हड़ रूप तुम्हारा
मैंने उन पावन राहों का पत्थर-पत्थर चूम लिया
तुम पर गीत लिखा फिर उसका अक्षर-अक्षर चूम लिया
हम-तुम उतनी दूर- धरा से नभ की जितनी दूरी
फिर भी हमने साध मिलन की पल में कर ली पूरी
मैंने धरती को दुलराया, तुमने अम्बर चूम लिया
तुम पर गीत लिखा फिर उसका अक्षर-अक्षर चूम लिया
राधा
देवल आशीष, मुक्तक | Krishna (21), love (138), radha (10), कृष्ण (18), देवल (5), प्रेम (143), राधा (2)
देवल आशीष
गोपियाँ गोकुल में थीं अनेक परन्तु गोपाल को भा गई राधा
बांध के पाश में नाग-नथैया को, काम-विजेता बना गई राधा
काम-विजेता को, प्रेम-प्रणेता को, प्रेम-पियूष पिला गई राधा
विश्व को नाच नाचता है जो, उस श्याम को नाच नचा गई राधा
त्यागियों में, अनुरागियों में, बड़भागी थी; नाम लिखा गई राधा
रंग में कान्हा के ऐसी रंगी, रंग कान्हा के रंग नहा गई राधा
‘प्रेम है भक्ति से भी बढ़ के’ -यह बात सभी को सिखा गई राधा
संत-महंत तो ध्याया किए और माखन चोर को पा गई राधा
ब्याही न श्याम के संग, न द्वारिका या मथुरा, मिथिला गई राधा
पायी न रुक्मिणी-सा धन-वैभव, सम्पदा को ठुकरा गई राधा
किंतु उपाधि औ’ मान गोपाल की रानियों से बढ़ पा गई राधा
ज्ञानी बड़ी, अभिमानी बड़ी, पटरानी को पानी पिला गई राधा
हार के श्याम को जीत गई, अनुराग का अर्थ बता गई राधा
पीर पे पीर सही पर प्रेम को शाश्वत कीर्ति दिला गई राधा
कान्हा को पा सकती थी प्रिया पर प्रीत की रीत निभा गई राधा
कृष्ण ने लाख कहा पर संग में ना गई, तो फिर ना गई राधा
विनय विश्वास
बुङ्ढा खामखाँ रोटियाँ तोड़ता है
बुङ्ढा हर आने-जाने वाले को घूरता है
बुङ्ढा सफ़ाई वाली से मज़ाक करता है
बुङ्ढा ढंग के कपड़े नहीं पहनता
बुङ्ढा सारी रात कानों में घुस के खाँसता है
बुङ्ढे ने घर को नरक बना रक्खा है
‘मर ग्या… मर ग्या’ करता बुङ्ढा मरता भी नहीं
सुनते-सुनते
आख़िर मर गया बूढ़ा
वो बड़ा अच्छा था
आटा पिसवा लाता था
सफ़ाई वाली से अच्छी तरह सफ़ाई करवाता था
सादगी से रहता था
बच्चों को खाना सिखाता था
उसके रहते घर को ताला नहीं लगाना पड़ा कभी
बुज़ुर्ग आदमी का तो होना ही बहुत होता है
सुनने के लिए
अब नहीं है बूढ़ा!
शब्द
कविता, विनय विश्वास | Hindi (604), invisible, Kavita (485), meanings (89), reality, sence, sound, vinay (9), vishwas (16), visible, words (87), शब्द
विनय विश्वास
तुम हवाओं में शब्द उछालते हो
सत्य
और मुझ तक पहुँचते-पहुँचते वो बन जाता है
गिरगिट
तुम लिखते हो
आदमी
मैं पढ़ता हूँ
शैतान
तुम बोलते हो
ज़िन्दगी
मैं सुनता हूँ
हत्या
और यहीं से शुरू होते हैं
शब्द
मीडिया
आशीष कुमार 'अंशु', कविता | Journalist (2), Market (2), mEDIA (3), News Channel, Reporter, Tarrorism (2)
आशीष कुमार ‘अंशु’
कश्मीर में
ए के 47 की गोलियों से छलनी
एक बाप
एक बेटा
एक भाई।
आतंकियों के हाथों बलात्कृत
एक माँ
एक बहन
एक बेटी
कोई नैतिक संकट पैदा नहीं करते
‘सबसे पहले; सबसे तेज़’
-का नारा लगाने वालों के लिए!
उन्हें हर घंटे में एक धमाका
कुछ एक्सक्लूसिव चाहिए
यह बाज़ार की मांग है साथियो!
जवान बेटी की अर्थी को कांधा देते बाप से
जब कोई पूछता है-
आप कैसा महसूस कर रहे हैं?
…आप महसूस कीजिए
क्या बीतती होगी बूढ़े बाप पर!
आप तक
बेटी के बलात्कार की सूचना
कैसे पहुँची?
…शान्ति
……घनघोर शान्ति
………भयावह शान्ति
जैसे
कोई तूफ़ान आने वाला हो
चलिए
आपकी मुश्क़िल करते हैं आसान
आपको देते हैं
हम चार विकल्प-
किसी मित्र द्वारा
पुलिस द्वारा
समाचार पत्र
या टीवी चैनल द्वारा?
…पुन: वही शान्ति
……कोई जवाब नहीं!
सारी मर्यादाओं का
अतिक्रमण करता हुआ
वह माइकधारी प्रसन्नता से उछल पड़ा
जैसे लगा हो उसे
ग्यारह हज़ार वोल्ट का करंट।
“जैसा कि अमुकजी ने बताया
उन्हें अपनी बेटी के
बलात्कार की सूचना
सबसे पहले देने वाला था
हमारा न्यूज़-चैनल
इससे साबित होता है
हमारा चैनल है सबसे तेज़
हमारे चैनल की ओर से मिलता है
अमुक जी को बीस हज़ार रुपए का
गिफ़्ट वाउचर।”
सावधान!
सवधान!!
सवधान!!!
इससे पहले
कि यह बाजार
तुम्हारी धमनियों में उतर जाए
तुम्हें दोगला बना दे
सावधान हो जाओ!
अजय जनमेजय
अक्कड़-बक्कड़ हो-हो-हो
पास न धेला
फिर भी मेला
देखें फक्कड़ हो-हो-हो
भूखा दूल्हा
सूखा चूल्हा
गीला लक्कड़ हो-हो-हो
मुँह तो खोलो
कुछ तो बोलो
बोला मक्कड़ हो-हो-हो
मांगा आलू
लाए भालू
बड़े भुलक्कड़ हो-हो-हो
छोड़ो खीरा
देके चीरा
खाओ कक्कड़ हो-हो-हो
बिल्ली मौसी
अजय जनमेजय, बाल-कविता | billi, Cat, Child poetry, Hindi (604), May I come in, Nursery Rhime (3)
अजय जनमेजय
बिल्ली तुम कैसी मौसी हो
समझ न मेरे आया
चूहा कैसे खा जाती हो
सोच-सोच चकराया
अगर तुम्हें मौसी रहना है
सीखो ढंग से रहना
छोड़ म्याऊँ-म्याऊँ अब
तुम ‘मे आई कम इन’ कहना
बचपन
कुलदीप आज़ाद, गीत | azaad, azad (6), Childhood (13), Hindi (604), kuldeep (9), kuldip, Memories (32), Poetry (470), value (3), wish (15)
कुलदीप आज़ाद
लौटा दो मेरा बचपन
उसके बदले क्या लोगे?
माँ की थपकी माँ का चुबंन
उसके बदले क्या लोगे?
जिसके आँचल की छाया में
मैंने घुटनों चलना सीखा
वो कच्चा-सा टूटा आंगन
उसके बदले क्या लोगे?
सुबह-सुबह जगना रोकर
स्कूल चले बस मुँह धोकर
वही नाश्ता रोज़ सुबह
बासी रोटी, ताज़ा मक्खन
उसके बदले क्या लोगे?
हाथों में तख्ती और खड़िया
बस्ते में स्याही की पुड़िया
पट्टी पर सिमटा-सा बैठा
बूढ़ा भारत नन्हा बचपन
उसके बदले क्या लोगे?
दिन भर रटते फिरना पोथी
गहरी बातें और कुछ थोथी
फिर छह ऋतुओं बाद दिखे
जाता पतझड़ आता सावन
उसके बदलें क्या लोगे?
रस्ते भर करना मस्ती
गूंजे चौराहा, हर बस्ती
लटक पेड़ो से ले भगना
कच्ची अमिया पक्के जामुन
उसके बदले क्या लोगे?
गिट्टे, कंचे, गुल्ली, डंडा
भगना-छिपना लेना पंगा
गुड्डे-गुड़ियों के खेलों में
बिन दहेज ले आना दुल्हन
उसके बदले क्या लोगे?
फिर थके बदन घर की खटिया
इक परीलोक नन्हीं दुनिया
लोरी गाते चंदा-तारे
बुनता सपने बिखरा जीवन
उसके बदले क्या लोगे?
कुलदीप आज़ाद
सफ़र पर चले हम, सफ़र के लिए
सफ़र में हमें हमसफ़र मिल गया
कुछ लम्हे गुज़ारे हमवक़्त के संग
वो ठहरा मुसाफिर भीड़ में मिल गया
इत्तफ़ाक़ की इस मुलाक़ात को क्या नाम दूँ?
दिन-महीने-साल गुज़रने लगे हैं
वो यादों के झरने भी झरने लगे हैं
समय की राह पर उनका फिर से टकराना
हमें पहचानना और परिचित बताना
पहचान की शुरूआत को क्या नाम दूँ?
मिलते ही मुस्कुराना आदत लगी उनकी
कोई करिश्माई, शख़्सियत लगी उनकी
खुशियाँ बाँटना, फितरत लगी उनकी
मुझमें कुछ तलाशना नीयत लगी उनकी
इस अनजानी तलाश की क्या नाम दूँ?
मंज़िल क़रीब अपनी आने लगी थी
बिछुड़ने की बातें सताने लगी थीं
उनकी झुकी आँखे इशारा थी इस बात का
कि वो हमसे कोई रिश्ता जताने लगी थी
इन रिश्तों के जज़्बात को क्या नाम दूँ?
वर्षों बाद भी उस सुखद हादसे के
मैं भीड़ में अकेला वो चेहरा तलाश करता हूँ
खुली आँखो से देखा है जो सपना
पूरा होगा बस यही आस करता हूँ
ख़्वाबों की बरसात को क्या नाम दूँ?
पद्मिनी शर्मा
ख़ुद तपी मुझको मगर ऑंचल की छाया में रखा
सब अभावों को छिपा भावों की माया में रखा
माँ तेरा संघर्ष मेरी अर्चना का पात्र है
धन्य तू नौ मास मुझको अपनी काया में रखा
हर तरफ़ असमानता
पद्मिनी शर्मा, मुक्तक | contradiction, Corruption (20), Society (14), दिखावा (19), भूख, समाज, ग़रीबी (7)
पद्मिनी शर्मा
हर तरफ़ असमानता से ग्रस्त रुग्ण समाज है
भ्रष्ट अन्यायी जनों के शीश पर ही ताज है
दूध-बिस्कुट खा रहे कुत्तो विदेशी इक तरफ़
अनगिनत बच्चे मगर रोटी को भी मोहताज़ है
विरोधाभास
पद्मिनी शर्मा, मुक्तक | Culture (17), feminism (4), India (207), Modernization (2), Westernisation, Women (96)
पद्मिनी शर्मा
सभ्यता जिसकी कि पूरे विश्व में पहचान है
गर्व है मुझको कि मेरा देश हिन्दुस्तान है
पर विरोधाभास घूंघट लाज के परिवेश में
नारियों का नित्य छोटा हो रहा परिधान है
सिहर जाती हूँ मैं
पद्मिनी शर्मा, मुक्तक | Eve Teasing (2), feminism (4), Girl (7), Home (10), safety (2), security (2), Women (96)
पद्मिनी शर्मा
घर से बाहर जब निकलती हूँ सिहर जाती हूँ मैं
माँ न हों ग़र साथ मेरे बहुत डर जाती हूँ मैं
एक बोली, एक सीटी, एक मैली सी नज़र
जब कभी उठती है सौ-सौ मौत मर जाती हूँ मैं
माँ की प्यारी सी परी हूँ
पद्मिनी शर्मा, मुक्तक | Eve Teasing (2), feminism (4), Girl (7), Home (10), safety (2), security (2), Women (96)
पद्मिनी शर्मा
माँ की प्यारी सी परी हूँ, चाह हूँ अरमान हूँ
लाडली पापा की उनका मान हूँ अभिमान हूँ
घर से बाहर सारी दुनिया किन्तु इक बाज़ार है
मनचलों की दृष्टि में लड़की नहीं सामान हूँ
ऊँची मंज़िल
गीत, पद्मिनी शर्मा | Childhood (13), exams (2), Life (68), Moment (4), nessecity, Philosophy (190), suicide, Time (7)
पद्मिनी शर्मा
सब कहते हैं ऊँची मंज़िल चढ़ना बहुत ज़रूरी है
सारी दुनिया भूल के लिखना-पढ़ना बहुत ज़रूरी है
पर मुझको लगता है बचपन जीना बहुत ज़रूरी है
एक बार जो गुज़र गया दिन लौट के फिर कब आता है
हर दिन का हर पल अगले दिन यादों में रह जाता है
सब कहते हैं हर दिन आगे बढ़ना बहुत ज़रूरी है
पर मुझको लगता है बचपन जीना बहुत ज़रूरी है
जीवन है तो सब कुछ है, वो जाने कैसे भूल गए
कम नम्बर आए तो सीधे फन्दों से ही झूल गए
सब कहते हैं असफलता से लड़ना बहुत ज़रूरी है
पर मुझको लगता है बचपन जीनो बहुत ज़रूरी है
आशीष कुमार ‘अंशु’
मीनू!
यहाँ पागल नहीं रहते
ये वे लोग हैं
जो समाज के पैंतरों से
वाक़िफ़ नहीं थे।
सच को सच
झूठ को झूठ बताते रहे
मन में मैल
चेहरे पर मुस्कान रखने का हुनर
इनके पास नहीं था
ये किसी की भावनाओं से
नहीं खेलते थे
किसी को इमोशनल ब्लैकमेल
नहीं करते थे
मीनू यहाँ ठहरे लोग
पागल नहीं हैं
पागल है
इस पागलखाने के बाहर की
पूरी दुनिया!
यहाँ हम घंटो-घंटो बतिया सकते हैं
एक-दूसरे का दुख-दर्द बाँट सकते हैं
गलबहियाँ डालकर
घंटों रो सकते हैं
घंटों हँस सकते हैं
यहाँ समाज की कोई पाबंदी नहीं है।
यहाँ कोई नहीं आएगा कहने
तुम पागलों की तरह क्यों हँस रही हो…!
यहाँ हर उस बात की इज़ाज़त है
जिसकी इज़ाज़त
तुम्हारा सभ्य समाज
कभी नहीं देगा
रात को दो बजे
तुम चीख-चीख कर रो सकती हो
किसी की मौत पर
तुम ज़ोर-ज़ोर से हँस सकती हो
दुश्मन को दुश्मन
और दोस्त को दोस्त कह सकती हो
यहाँ चेहरे पर छद्म मुस्कान
और कलेजे पर पत्थर रखने की
ज़रूरत नहीं।
यहाँ दिखावा नहीं चलता
यहाँ सच्चाई चलती है।
आज तुम्हारी आँखों में
मेरे लिए प्रेम नहीं था
दया, तरस, सहानुभूति के भाव थे
सभ्य समाज की एक नारी
एक पागल के लिए
मन में इसी तरह के भाव रख सकती है
मुझे दु:ख नहीं इस बात का
दु:ख सिर्फ़ इतना है
कि तुमने भी औरों की तरह सोचा।
आशीष कुमार ‘अंशु’
यह आज मैं जान पाया हूँ
कि अपने बीते हुए भविष्य
आने वाले वर्तमान
और चल रहे भूत के बीच
तादात्म्य बिठलाने की
कोशिश में
वह लड़ता-भिड़ता
थका-हारा
मजदूर बालक
मैं ही था
आशीष कुमार ‘अंशु’
(मित्र की वर्षगाँठ पर)
जीवन
वर्षों की तय लंबी डोरी
जिस पर पड़ती हर एक गाँठ
बीते हुए दिनों
और आने वाले कल के बीच की
एक कड़ी है
आज यह विचार करो
आज तक तुमने
क्या खोया
क्या पाया
निर्धारित करो
तुम्हें क्या पाना है
बीते हुए कल के अनुभवों
और आने वाले कल की
संभावनाओं और अवसरों से
तुम अपने जीवन के
महत्तम लक्ष्य को पाओ!
यही है मेरी शुभकामना!
आशीष कुमार ‘अंशु’
अपनी मौत पर
अफ़सोस नहीं मुझको
जो आया है
वो जाएगा
अफ़सोस फ़क़त ये है
आज के अखबार में
मेरे मरने का
समाचार नहीं है
आशीष कुमार ‘अंशु’
काश मन एक मोबाइल होता
जिसमें एक ऑप्शन होता
‘इरेज़’,
फिर दुनिया के बहुत सारे लोग
अपनी कई परेशानियों से
निज़ात पा जाते
आशीष कुमार ‘अंशु’
दिल की बात
होंठो पर भी न आई थी,
कि वह समझ गई।
और लाकर धर दिया
मेरे सामने…
चाय का एक प्याला
आशीष कुमार ‘अंशु’
तुम्हें अपनी ज़िन्दगी से
न हो
न सही,
हमें तो है …
…………….
…. ….. …..
इसलिए रखा करो
अपना ख़्याल!
आशीष कुमार ‘अंशु’
तुमने एक ‘लतीफ़ा’ सुनाया था
जिसे सुनकर सब हँस पड़े थे
सिर्फ़ मैं नहीं हँसा था,
क्योंकि हँसने के लिए मैं
‘लतीफ़ों’ का मोहताज नहीं हूँ।
हँसा मैं भी
मगर दो घंटे बाद,
जब हँसने का
कोई मतलब नहीं था।
मतलब था तो
सिर्फ़ इतना
कि मैं हँसा था
मगर अपनी शर्तों पर।
शंभू शिखर
पढ़े-लिखे श्रोताओं का
कवि-सम्मलेन में आना
अब नहीं होगा आसान
क्योंकि गेट पर खड़ा दरबान
आने वाले सभी श्रोताओं से
रजिस्टर में अंगूठा लगवाएगा
और जिसने भी
हस्ताक्षर करने की क़ोशिश की
बाहर से ही भगा दिया जाएगा
अच्छी याददाश्त वाले श्रोता भी
कवि-सम्मलेन में बहुत बड़ी बाधा हैं
इनके न आने में ही
कवि-सम्मलेन और कवियों की भलाई है
क्योंकि वर्षों से
किसी भी बड़े कवि ने
एक भी नई कविता नहीं सुनाई है..।
एक ही चुटकुले को
एक ही कवि-सम्मलेन में
एक-एक कर
सभी कवियों के मुँह से सुनने के बाद भी
जो श्रोता हँसता हुआ पाया जाएगा
उसका लक्की ड्रॉ करवाया जाएगा
ड्रॉ में जिस भी श्रोता का नाम आया
कवि रात्रि-भोज उसी के यहाँ खाएंगे
और धन्यवाद ज्ञापन में
वही चुटकुला दोबारा सुनाएंगे।
श्रोता पुराने जूते-चप्पल पहनकर
कवि-सम्मलेन में नहीं आएंगे
और कवयित्रियों के लिए
अतिरिक्त ताली भी नही बजाएंगे
हूट करने वाले श्रोता से
हज़ार रुपये की रक़म
ज़ुर्माना के रूप में ली जाएगी
और तत्काल प्रभाव से ये राशि
हूट हुए कवि को दी जाएगी
इस व्यवस्था से
कवि फूले नहीं समाएंगे
खु़द को हूट करने के लिए
श्रोताओं को बार-बार उकसाएंगे
श्रोता से आयोजक बने लोग
ज़्यादा सम्मान पाएंगे
सारे कवि उन्हें अपना बड़ा भाई बताएंगे
कवि-सम्मलेन के जुमले
दोस्तों को सुनाते हुए पकड़े जाने पर
आयोजकों द्वारा क्लेम लिया जाएगा
आयोजक क्लेम की राशि खु़द नहीं खाएंगे
बल्कि उन पैसों से
दोबारा कवि-सम्मलेन करवाएंगे
कोई भी
कवि से कविता का अर्थ नहीं पूछेगा
और कवयित्रियों से
डेट ऑफ़ बर्थ नहीं पूछेगा
कवि किसीकी भी कविता को
अपना कह कर सुनाएंगे
और कवयित्रियों को
पाँच सौ रुपये
अतिरिक्त साज-सज्जा के लिए दिए जाएंगे
और आचार-संहिता का आखरी नियम
सभी को अपनाना होगा
कविता चाहे कैसी भी हो
खत्म होते ही ताली बजाकर
उल्लास जताना होगा
शंभू शिखर
मौसम की पहली बारिश से
धरती की कोख़ में दबे
बीज से निकले नन्हे बिरवे,
बिल्कुल ऐसे ही लगते हैं
जैसे माँ की कोख़ से
धरती पर आई
नन्ही-सी लड़की के
कोमल से चेहरे
पे स्वछंद हँसी…
लड़की बिल्कुल वैसे ही बढ़ती है
जैसे तेज़ आंधी
गर्म धूप
और बारिश की मार सहते हुए
बढ़ते हैं बिरवे
पौधा बनने के लिए।
कोयल की कूक से
कूक मिलाती लड़की
उड़ जाना चाहती है आकाश में,
चाहती है
देख सके बादलों के पार
ये अपार संसार
कि तभी
उसके पंख काट लिए जाते हैं
बिल्कुल ऐसे
जैसे पौधों में
नए ताज़ा-हरे पत्तों को
खा जाती हैं गाय-बकरियाँ,
…क्योंकि लड़कियाँ
पैदा नहीं होतीं
बनाई जाती हैं।
ठीक वैसे
जैसे क़ैद कर लेते हैं हम
पौधे के ख़ूबसूरत आकाश को
अपने घर के कोने में
एक गमले के अन्दर
और ध्यान रखते हैं
कि एक भी पत्ता
लांघ न पाए परिधि;
क्योंकि जानते हैं
जिस दिन भी पत्ते
लांघ जाएंगे परिधि,
लड़कियाँ डाल देंगी
उस पर झूले
तोड़ देंगी
उस ज़ंजीर को
जिसमें रोशनी को
क़ैद किया गया है…!
शंभू शिखर
कोई अच्छा बुरा नहीं होता
वक़्त का कुछ पता नहीं होता
सब की ख़ुशियों में, ग़म में शामिल है
कोई यूँ ही ख़ुदा नहीं होता
इश्क़ में रास्ते तो होते हैं
मंज़िलों का पता नहीं होता
इक-सी मजबूरियाँ रहें बेशक़
हर कोई बेवफ़ा नहीं होता
दिल के कोने में साँस लेता है
दर्द यूँ ही जवाँ नहीं होता
शंभू शिखर
शाम ढली है चांद अभी निकला-निकला
छत पर मैं अम्बर पे वो तनहा-तनहा
छोड़ लड़कपन होश अभी संभला-संभला
मौसम का हर रंग लगे बहका-बहका
कभी भटकता रहता हूँ सहरा-सहरा
कभी रहूँ मैं काग़ज़ पर बिखरा-बिखरा
कच्ची उम्र का प्यार मेरा पहला-पहला
संदल वन-सा तन मेरा महका-महका
आज मिरे चेहरे पर एक उदासी है
आज की शब है चांद भी कुछ उतरा-उतरा
शंभू शिखर
जिसका जैसा मन होता है
वैसा ही दरपन होता है
छोटे से दिल में भी यारो
बहुत बडा आंगन होता है
प्यार न जिससे बाँटा जाए
कितना वो निर्धन होता है
जब भी वो मिलता है हम से
पतझर भी सावन होता है
सुख-दुःख में जो साथ निभाए
सच्चा वो बंधन होता है
सोहनलाल द्विवेदी
आज कण-कण कनक कुंदन
आज तृण-तृण हरित चंदन
आज क्षण-क्षण चरण वंदन
विनय अनुनय लालसा है
आज वासन्ती उषा है
अलि रचो छंद
आज आई मधुर बेला
अब करो मत निठुर खेला
मिलन का हो मधुर मेला
आज अधरों में तृषा है
आज वासंती उषा है
अलि रचो छंद
मधु के मधु ऋतु के सौरभ के
उल्लास भरे अवनी नभ के
जड़-जीवन का हिम पिघल चले
हो स्वर्ण भरा प्रतिचरण मंद
अलि रचो छंद
अल्हड़ ‘बीकानेरी’
डाकू नहीं, ठग नहीं, चोर या उचक्का नहीं
कवि हूँ मैं मुझे बख्श दीजिए दारोग़ा जी
काव्य-पाठ हेतु मुझे मंच पे पहुँचना है
मेरी मजबूरी पे पसीजिए दारोग़ा जी
ज्यादा माल-मत्ता मेरी जेब में नहीं है अभी
पाँच का पड़ा है नोट लीजिए दारोग़ा जी
पौन बोतल तो मेरे पेट में उतर गई
पौवा ही बचा है इसे पीजिए दारोग़ा जी
अल्हड़ ‘बीकानेरी’
तुम्हीं हो भाषण, तुम्हीं हो ताली
दया करो हे दयालु नेता
तुम्हीं हो बैंगन, तुम्हीं हो थाली
दया करो हे दयालु नेता
तुम्हीं पुलिस हो, तुम्हीं हो डाकू
तुम्हीं हो ख़ंजर, तुम्हीं हो चाकू
तुम्हीं हो गोली, तुम्हीं दुनाली
दया करो हे दयालु नेता
तुम्हीं हो इंजन, तुम्हीं हो गाड़ी
तुम्हीं अगाड़ी, तुम्हीं पिछाड़ी
तुम्हीं हो ‘बोगी’ की ‘बर्थ’ खाली
दया करो हे दयालु नेता
तुम्हीं हो चम्मच, तुम्हीं हो चीनी
तुम्हीं ने होठों से चाय छीनी
पिला दो हमको ज़हर की प्याली
दया करो हे दयालु नेता
तुम्हीं ललितपुर, तुम्हीं हो झाँसी
तुम्हीं हो पलवल, तुम्हीं हो हाँसी
तुम्हीं हो कुल्लू, तुम्हीं मनाली
दया करो हे दयालु नेता
तुम्हीं बाढ़ हो, तुम्हीं हो सूखा
तुम्हीं हो हलधर, तुम्हीं बिजूका
तुम्हीं हो ट्रैक्टर, तुम्हीं हो ट्राली
दया करो हे दयालु नेता
तुम्हीं दलबदलुओं के हो बप्पा
तुम्हीं भजन हो तुम्हीं हो टप्पा
सकल भजन-मण्डली बुला ली
दया करो हे दयालु नेता
पिटे तो तुम हो, उदास हम हैं
तुम्हारी दाढ़ी के दास हम हैं
कभी रखा ली, कभी मुंड़ा ली
दया करो हे दयालु नेता
अल्हड़ ‘बीकानेरी’
कविता के साथ चली चाकरी चालीस साल
आखर मिटाए कब मिटे हैं ललाट के
रहा मैं दो नावों पे सवार- लीला राम की थी
राम ही लगाएंगे किनारे किसी घाट के
शारदा को नमन कबीरा को प्रणाम किया
छुए न चरण किसी चारण या भाट के
तोड़ गई ‘ग़ालिब’ को तीन महीनों की क़ैद
ताड़-सा तना हूँ दो-दो उम्र क़ैद काट के
अल्हड़ ‘बीकानेरी’
कैसा क्रूर भाग्य का चक्कर
कैसा विकट समय का फेर
कहलाते हम- बीकानेरी
कभी न देखा- बीकानेर
जन्मे ‘बीकानेर’ गाँव में
है जो रेवाड़ी के पास
पर हरियाणा के यारों ने
कभी न हमको डाली घास
हास्य-व्यंग्य के कवियों में
लासानी समझे जाते हैं
हरियाणवी पूत हैं-
राजस्थानी समझे जाते हैं
अल्हड़ ‘बीकानेरी’
वर दे, वर दे, मातु शारदे
कवि-सम्मेलन धुऑंधार दे
‘रस’ की बात लगे जब नीकी
घर में जमे दोस्त नज़दीकी
कैसे चाय पिलाएँ फीकी
चीनी की बोरियाँ चार दे
‘छन्द’ पिट गया रबड़छन्द से
मूर्ख भिड़ गया अक्लमंद से
एक बूंद घी की सुगंध से
स्मरण शक्ति मेरी निखार दे
‘अलंकार’ पर चढ़ा मुलम्मा
आया कैसा वक्त निकम्मा
रूठ गई राजू की अम्मा
उसका तू पारा उतार दे
नए ‘रूपकों’ पर क्या झूमें
लिए कनस्तर कब तक घूमें
लगने को राशन की ‘क्यू’ में
लल्ली-लल्लों की क़तार दे
थोथे ‘बिम्ब’ बजें नूपुर-से
आह क्यों नहीं उपजे उर से
तनख़ा मिली, उड़ गई फुर-से
दस का इक पत्ता उधार दे
टंगी खूटियों पर ‘उपमाएँ’
लिखें, चुटकुलों पर कविताएँ
पैने व्यंग्यकार पिट जाएँ
पढ़ कर ऐसा मंत्र मार दे
हँसें कहाँ तक ही-ही-हू-हा
‘मिल्क-बूथ’ ने हमको दूहा
सीलबन्द बोतल में चूहा
ऐसा टॉनिक बार-बार दे
अल्हड़ ‘बीकानेरी’
कूड़ा करकट रहा सटकता, चुगे न मोती हंसा ने
करी जतन से जर्जर तन की लीपापोती हंसा ने
पहुँच मसख़रों के मेले में धरा रूप बाजीगर का
पड़ा गाल पर तभी तमाचा, साँसों के सौदागर का
हंसा के जड़वत् जीवन को चेतन चाँटा बदल गया
तुलने को तैयार हुआ तो पल में काँटा बदल गया
रिश्तों की चाशनी लगी थी फीकी-फीकी हंसा को
जायदाद पुरखों की दीखी ढोंग सरीखी हंसा को
पानी हुआ ख़ून का रिश्ता उस दिन बातों बातों में
भाई सगा खड़ा था सिर पर लिए कुदाली हाथों में
खड़ी हवेली के टुकड़े कर हिस्सा बाँटा बदल गया
खेल-खेल में हुई खोखली आख़िर खोली हंसा की
नीम हक़ीमों ने मिल-जुलकर नव्ज़ टटोली हंसा की
कब तक हंसा बंदी रहता तन की लौह सलाखों में
पल में तोड़ सांस की सांकल प्राण आ बसे आंखों में
जाने कब दारुण विलाप में जड़ सन्नाटा बदल गया
मिला हुक़म यम के हरकारे पहुँचे द्वारे हंसा के
पंचों ने सामान जुटा पाँहुन सत्कारे हंसा के
धरा रसोई, नभ रसोइया, चाकर पानी अगन हवा
देह गुंदे आटे की लोई मरघट चूल्हा चिता तवा
निर्गुण रोटी में काया का सगुण परांठा बदल गया
जिस रास्ते जाता है
उसी रास्ते
वापस भी लौट आता है
नाविक!
रोज़ न जाने कितनों को
पार लगाने वाला
नाव और
नदी के किनारों
से कितना बंधा है
नाविक!
इक नदी में हो जैसे
अपनी ही सीमाओं में बंधी हुई
इक झील।
वह भी
नदी के प्रवाह के साथ बह सके
इसके लिए
उसकी अपनी पतवारें भी
कितनी अमसर्थ हो।
नदी के प्रवाह का अर्थ
ही है उसके लिए
सिर्फ़ औरों को पार लगाना।
इसीलिए तो वह नाविक है
सीमाओं में बंधी
इक झील के जैसा।
नींव के पत्थर
कविता, नील | Base (2), Devotion (12), Foundation Stone, Hindi (604), Kavita (485), Neel (18), Poetry (470), Silent
नील
कंगूरों के बड़बोलेपन से दूर
रंगो-रोगन की चमक-धमक से परे
सिर पर
न जाने कितनी फ़ुरसत ओढ़े
पड़े हैं
नींव के पत्थर।
उन्होंने कभी नहीं देखा
रंगों का इन्द्रधनुष
कभी नहीं छुआ
बसन्ती हवा ने उन्हें
नहीं आई उनके हिस्सों में
एक भी
बेधड़क अंगड़ाई।
अच्छा है
वे दूर पड़े हैं
दुनिया में फैल रहे
नीले अंधियारों से
काले अंगारों से…!
नील
आज भी याद है
वह दिन
जब पहली बार मैं
दादी की उंगली पकड़कर
गली के नुक्कड़ पर बैठे
मोची के पास गया था
अपनी छोटी-सी चप्पल सिलवाने।
उसे ध्यान से देखा
उसके औज़ारों को परखा
बरसों बाद उसी नुक्कड़ पर
आज उसे फिर से देखा
तो अब सोचता हूँ
दूसरों के छालों
घावों की चिंता की जिसने
कि सब मंज़िलों के सफ़र पर
चलते रहें
लगता है
जैसे अपनी ही रापी से
उसने काट ली
अपने हाथों की लकीरें
वह आज भी
उसी नुक्कड़ पर बैठा
काँपते हाथों से
सी रहा है
एक छोटे से बच्चे की
टूटी-सी चप्पल!
नील
कितना सन्नाटा पसरा है
ऊँची अट्टालिकाओं में
भावनाओं की इतनी दरिद्रता?
इस तुमुल कोलाहल में
मेरी संवदनाओं को सुनने वाला कोई नहीं
काम के लिए उठते लाखों हाथों में
एक भी हाथ ऐसा नहीं
जो गिरते वक़्त मेरा हाथ थाम ले
इस चलते-फिरते
दौड़ते-भागते रंगीन रेगिस्तान में
याद आती हैं वो गलियाँ
जहाँ से कभी मैं भागा था
इस सुनहरे मृग के पीछे
मरीचिका में फँसकर
अपने खेतों में अकेला होते हुए भी
कितना भरा हुआ तो था मैं
गेहूँ की हर बाली झूमती थी
मेरे बेसुरे गीतों पर भी
दुनिया जिसे कड़वा कहती है
वह नीम भी देता था मीठी-सी छाँव
बेर के काँटों की चुभन
कहीं ज़्यादा मीठी थी
दोस्तों की कड़वी बातों से
मटर की फलियों का
वह कच्चा मीठापन
हवा का बेबाक़ खुलापन
काश! मैं अपने भीतर भर पाता
तो उन्हीं का हो जाता
हमेशा-हमेशा के लिए!
नील
किसी परेशानी को सामने देखकर
मैं उतनी ही तीव्रता से
परेशान होता हूँ
उलझता हूँ उसी बेबसी में
घिरता हूँ उसी डर से
जितना परेशान मैं तब होता था
जब बचपन में
मेरी पतंग अटक जाती थी
पेड़ की सबसे ऊँची वाली शाख पर
डोर मेरे हाथ में होती
तो भी कहाँ अधिकार होता था
पतंग पर मेरा
आज भी वैसा ही होता है
समस्याएँ आज भी सुलझती हैं
पर न जाने क्यों
अब उतनी ख़ुशी नहीं मिलती
जितनी तब मिलती थी
जब हवा का कोई मासूम झोंका
मेरा अपना होकर
मेरी पतंग उतार देता था
पेड़ की सबसे ऊँची वाली शाख से
लगता है
सिमट रहे हैं
ख़ुश होने के दायरे!
पुराना पीपल
कविता, नील | Culture (17), Environment (7), Family (14), Nature (54), Neel (18), Old (3), परंपरा (34), पीपल, प्रकृति (87), बुज़ुर्ग (6), संस्कृति (31)
नील
पीपल का वह पेड़ पुराना
गाँव के बाहर
न जाने कब से खड़ा है
बिल्कुल अकेला।
अब तो उसका भी मन होता है
अब गिर जाऊँ तब गिर जाऊँ
जब से उसने सुना है
कभी उसकी छाँव में खेलने वाले
नए-नए लड़के
चले गए हैं परदेस
तो उसका भी मन होता है
अब गिर जाऊँ तब गिर जाऊँ
पर कभी-कभी
गाँव की कोई पुरानी बूढ़ी काकी
लपेट जाती है
उस पर कच्चा सूत
तो उसे लगता है
कि वह भी हो गया है दशरथ
बंध गया है!
न जाने कब कोई आकर
उससे कुछ मांगेगा
तब वह मुक्त होगा
केकैयी के वरदानों से!
हर टुकड़े में चांद
कविता, नील | Childhood (13), Hindi (604), Kavita (485), Moon (5), Neel (18), Poetry (470), Reflection, Sister (2)
नील
मैं अक्सर छत पर जाता
मिट्टी के इक बर्तन में पानी भरता
फिर उसमें मैं चांद देखता
उससे गुपचुप बातें करता
अपनी कहता, उसकी सुनता
कभी रूठना, कभी मनाना
था रातों का यही फ़साना
चांद को
यहाँ तक पता होता था
कि मैंने कहाँ छुपाई होगी
बाबू जी की छड़ी चुराकर
वह भी मुझसे सब कुछ कहता
कि कौन उसे सुंदर कहता है
और कौन कहता है
कि चांद में दाग लगा है
एक रात मैं छत पर पहुँचा
तो देखा टूट गया था मेरा बर्तन
दस-बारह मिट्टी के टुकड़े
सारी छत पर फैले थे
अब कैसे चंदा मामा से बात करूंगा
कैसे बताऊंगा
मैंने चुपके-चुपके उसके लिए
पिछवाड़े के पेड़ों तोड़ी हैं
पकी-पकी जामुन
ये सवाल
बड़ी अकड़ के साथ खड़े थे
फिर वही हुआ
जो बचपन में अक्सर होता है
गंगा-यमुना का बहना
इतने में मेरी छुटकी छत पर आई
जिसको मैं कहता था
पगली बहना
उसने आकर मुझसे पूछा-
”क्यों रोता है?”
मैंने उसको बर्तन के टुकड़े
ऐसे दिखलाए
जैसे मेरे दिल के टुकड़े हों
वो मुस्काई
नीचे से पानी ले आई
हर टुकड़े में पानी भर कर
सबको इक पंक्ति में धर कर
मुझसे बोली- ”ये लो भैया
अब तक तो था एक चांद
अब हर टुकड़े में चांद सजा है
सबसे मिल लो
बातें कर लो
ख़ुश हो जाओ!”
मैं मुस्काया
और फिर मैंने ख़ुद से पूछा
मैं क्यों कहता हूँ
उसको पागल लड़की
उत्तार आया
वह पगली है
इसीलिए तो ऐसी है।
एक कहानी फिर सुननी है
गीत, नील | Bachpan, Childhood (13), Hindi (604), Kavita (485), Kavyanchal (182), Memories (32), Neel (18), Poetry (470)
नील
आज मेरे इस पागल मन को
दादी माँ से परियों वाली,
नन्हीं-मुन्नी चिड़ियों वाली
गुड्डे वाली, गुड़ियों वाली
सात रंग के सपनों वाली
एक कहानी फिर सुननी है
आज उठी है मन में आशा मिट्टी के फिर बनें घरौंदे
गाँवों की गलियों में घूमें बागों से फिर अमियाँ तोड़ें
फिर पानी में छप-छप कूदें फिर माली की सन्टी खाएँ
फिर थक कर मेरे इस तन को माँ के आँचल में सोना है
माँ के उस प्यारे आँचल में सपनों की दुनिया बुननी है
आज मेरे इस पागल मन को एक कहानी फिर सुननी है
नील गगन में अपने मन को बांध पतंग संग उड़ना है
खेतों की मेंढ़ों पर मुझको गिरना और संभलना है
ले गुलेल दिन भर मैं घूमूँ तितली पकड़ूँ कंचे खेलूँ
आज वही माँ की प्यारी-सी डाँट मिले इतनी आशा है
घर की टूटी-सी खटिया पर कोमल नींदें बस चुननी हैं
आज मेरे इस पागल मन को एक कहानी फिर सुननी है
स्वार्थ घात के इन खेलों में गुल्ली-डंडा ढूंढ रहा हूँ
बंधे हुए अपने सपनों में खुला-सा आंगन ढूंढ रहा हूँ
कोई मेरी पकड़ के उंगली, छोटी नाली पार करा दे
लेकर गोदी में मुस्का दे
दादा-दादी की ख़्वाहिश में इक नई रीत मुझे चुननी है
आज मेरे इस पागल मन को एक कहानी फिर सुननी है।
नील
बहुत दिनों से
चटाक की आवाज़ मेरे आस-पास नहीं गूंजी
बहुत दिनों से पापा के उस भारी हाथ की
पाँचों उंगलियाँ मेरे गाल पर नहीं उभरी
लगता है मैं बड़ा हो गया हूँ।
बहुत दिनों से मोने माँ की रसोई के
जीरे वाले डिब्बे से पैसे नहीं चुराए
चूरन की पुड़िया खाने के लिए
लगता है मैं बड़ा हो गया हूँ।
कल आधा-कच्चा अमरूद खाते हुए
मेरी छोटी बहन ने मुझसे मांग लिया
और मैंने दे दिया
लगता है मैं बड़ा हो गया हूँ।
एक गुब्बारे वाला मेरे
घर के सामने से गुज़रा
मोने माँ का पल्लू पकड़कर नहीं खींचा
मो ज़मीन पर लोट-पोट भी नहीं हुआ
मोने गुब्बारे वाले की साइकिल का
पिछला हिस्सा पकड़कर भी नहीं खींचा
मोने गुब्बारे वाले को जाने दिया
लगता है मैं बड़ा हो गया हूँ।
आज सुबह-सुबह मैंने
पड़ोस की काँच की खिड़की पे
एक पत्थर फेंका
मेरा निशाना चूक गया
लगता है मैं बड़ा हो गया हूँ।
गीत को हमदम
बनाकर,
दर्द का मरहम बनाकर,
गम भरी आहें भुलाकर,
कल्पना का बिम्ब देकर,
...लेखनी को
नम बनाकर,
तुम उसे शबनम बना दो ।
गीत मैंने लिख दिया है तुम उसे गीतम बना दो ।कश्मीर / गुलाब खंडेलवाल
हर कहीं अमृतमयी धारा है
आप विधि ने जिसे सँवारा है
स्वर्ग का एक खंड है कश्मीर
ज्योतिमय मुकुट यह हमारा है
एक तस्वीर ख़्वाब की-सी है
एक प्याली शराब की-सी है
चाँद का रूप, रंग केसर का
पंखडी ज्यों गुलाब की-सी है
. . .
चोटियों पर हँसी चमक उठती
शून्य में पायलें झमक उठातीं
दुग्ध-से गौर निर्झरों के बीच
देह की द्युति-तड़ित दमक उठती
. . .
सेव के बाग़, चिनारों की पाँत
फूल जैसे वसंत की बारात
प्रेम का स्वप्न-लोक है कश्मीर
ईद का दिवस, दिवाली की रात
. . .
हैं सफेदे सपाट सीधे-से
शीत के संतरी उनींदे-से
बर्फ के फूल कि तमगे तन पर
जहर रहे रत्न-कण अबींधे-से
. . .
मैं प्रवासी कि जा रहा हूँ आज
शून्य में टूट रही-सी आवाज
स्वप्न का ताजमहल मिटता-सा
कब्र में लौट रही-सी मुमताज
. . .
काँपता तीर बन गया हूँ मैं
प्राण की पीर बन गया हूँ मैं
शीत हिम अंग, रंग केसर-सा
आप कश्मीर बन गया हूँ मैं
अश्रु-हिम की फुहार मेरी है
घाटियों में पुकार मेरी है
चाँद-सा शून्य में टंगा मैं आज
नीलिमा यह अपार मेरी है
दर्द मेरा कि जम गयी ज्यो झील
प्यास मेरा कि बही झेलाम्नील
रात रोती चिनार-कुंजों की
स्वप्न मेरा कि गयी धरती लील
कवियों का बसंत (पैरोडी) / बेढब बनारसी
कवियों का कैसा हो बसंत
कवि कवयित्री कहतीं पुकार
कवि सम्मलेन का मिला तार
शेविंग करते, करती सिंगार
देखो कैसी होती उड़न्त
कवियों का कैसा हो बसंत
छायावादी नीरव गाये
ब्रजबाला हो, मुग्धा लाये
कविता कानन फिर खिल जाए
फिर कौन साधु, फिर कौन संत
कवियों का ऐसा हो बसंत
करदो रंग से सबको गीला
केसर मल मुख करदो पीला
कर सके न कोई कुछ हीला
डुबो सुख सागरमें अनंत
कवियों का ऐसा हो बसंत
(सुभद्राकुमारी चौहान की कविता 'वीरों का कैसा हो बसंत' की पैरोडी)अटल बिहारी वाजपेयी
- हम दीवाने आज जोश की—
मदिरा पी उन्मत्त हुए।
सब में हम उल्लास भरेंगे,
ज्वाला से संतप्त हुए।
रे कवि! तू भी स्वरलहरी से,
आज आग में आहुति दे।
और वेग से भभक उठें हम,
हद् – तंत्री झंकृत कर दे।कवि / रामधारी सिंह "दिनकर"
ऊपर सुनील अम्बर, नीचे सागर अथाह,
इतना भी है बहुत, जियो केवल कवि होकर;
है स्नेह और कविता, दोनों की एक राह।
ऊपर निरभ्र शुभ्रता स्वच्छ अम्बर की हो,
नीचे गभीरता अगम-अतल सागर की हो।
कवि होकर जीना यानी सब भार भुवन का
लिये पीठ पर मन्द-मन्द बहना धारा में;
और साँझ के समय चाँदनी में मँडलाकर
श्रान्त-क्लान्त वसुधा पर जीवन-कण बरसाना।
हँसते हो हम पर! परन्तु, हम नहीं चिढ़ेंगे!
हम तो तुम्हें जिलाने को मरने आये हैं।
मिले जहाँ भी जहर, हमारी ओर बढ़ा दो।
-
- (२)
-
- छील सकते हो इसे तुम आग से?
-
- तुम जगा सकते प्रभाती राग से?
- ======================
-
- कवि त्रिलोचन के ध्यान में लिखी गई पंक्तियाँ
अपनी हर बात में लासानी सा
फ़क़ीरी में ठाठ में
-रूहानी सा
शब्दों की धरती पर
जीवन जिया उस ने
तुलसी निराला,कबीर और मीरा के
मर्म और मा’नी सा
उस ने जिया जीवन
पहाड़ और समुद्र बीच
धूप और पानी सा
सन्तों की बानी सा
उस ने जिया जीवन
अधूरे कथानक की
पूरी कहानी सा
सन्तों की बानी सा
-------------------------------------------
कवि त्रिलोचन के ध्यान में लिखी गई पंक्तियाँ
हुस्न की आग को छूना होतो नज़रों से छुओ
हाथ से छुओगे तो, जल जाओगे
दिल लगाने की हंसिनों से न करना गल्ती
उम्र भर वरना पछताओगे
''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''
मैं अमर शहीदों का चारण
उनके गुण गाया करता हूँ
जो कर्ज राष्ट्र ने खाया है,
मैं उसे चुकाया करता हूँ।
------------------------------------------------
...यह सच है, याद शहीदों की हम लोगों ने दफनाई है
यह सच है, उनकी लाशों पर चलकर आज़ादी आई है,
यह सच है, हिन्दुस्तान आज जिन्दा उनकी कुर्वानी से
यह सच अपना मस्तक ऊँचा उनकी बलिदान कहानी से।
वे अगर न होते तो भारत मुर्दों का देश कहा जाता,
जीवन ऍसा बोझा होता जो हमसे नहीं सहा जाता,
यह सच है दाग गुलामी के उनने लोहू सो धोए हैं,
हम लोग बीज बोते, उनने धरती में मस्तक बोए हैं।
इस पीढ़ी में, उस पीढ़ी के
मैं भाव जगाया करता हूँ।
मैं अमर शहीदों का चारण
उनके यश गाया करता हूँ।
.................श्रीकृष्ण
रेशमी रक्षा कवच राखी के धागों को नमन,
सुर्ख फूलों को नमन उनके परागों को नमन
खुद जली लेकिन उजाला दे गयी जो देश को,
उन चिताओं के अडिग जलते चरागों को नमन
डॉ कुंवर बेचैन की पंक्तियां द्वारा मेरी भी महान क्रांतिवीर राजगुरु को श्रद्धान्जली
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें